आर्यभट्ट का जीवन परिचय Aryabhatt Biography in Hindi
नाम-आर्यभट्ट
जन्म-दिसंबर ई. स. 476
जन्म स्थान-अश्मक, महाराष्ट्र, भारत
मृत्यु-दिसंबर ई. स. 550
आर्यभट्ट का जीवन परिचय Aryabhatt Biography in Hindi:
आर्यभट्ट का जन्म पाँचवीं शताब्दी में पाटलिपुत्र (पटना) के निकट कुसुमपुर में सन् 476 में हुआ था। इनका जन्म विक्रमादित्य द्वतीय के समय ने हुआ था इनके शिष्य प्रसिद्ध खगोल विद्या बरामिहिर थे।
आर्यभट्ट का शिक्षा:
आर्यभट्ट ने नालन्दा विश्व विद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर मात्र 23 वर्ष की आयु में आर्यभट्ट नामक एक ग्रन्थ लिखा था उनके इस ग्रन्थ की प्रसद्धि और स्वीकृती के कारण राजा बुध्द गुप्त ने उनको नालन्दा विश्व विद्यालय का प्रमुख बना दिया था। इतिहासकारों के अनुसार आर्यभट्ट के समय उच्च शिक्षा हेतु प्रसिद्ध विश्वविद्यालय कुसुमपुर में स्थित था. इसलिये उन्होंने शिक्षा वहीँ से ग्रहण की थी. परन्तु इस बात के प्रामाणिक और ठोस प्रमाण मौजूद नहीं हैं.
आर्यभट्ट का गणित और खगोलीय विज्ञान के क्षेत्र में योगदान:
आर्यभट्ट ने सबसे पहले पाई की कीमत निश्चित की और उन्होंने ही अबसे पहले साईन के कोष्ठ दिये थे। गणित के जटिल प्रश्नों को सरलता से हल करने के लिए उन्होंने ही समीकरणों का आविष्कार किया जो पूरे विश्व में प्रख्यात हुआ। आर्यभट्ट ने बीजगणित में उन्होंने कोई संसोधन सर्वधन किया और गणित ज्योतिष का आर्य सिद्धांत का प्रचलित किया। वृद्ध अवस्था में आर्यभट्ट ने आर्यभट्ट सिद्धांत नामक ग्रन्थ में रेखा गणित, वर्गमूल, घनमूल जैसी गणित की कई बातों के अलावा खगोलशास्त्र की गणनाएँ और अंतरिक्ष से सम्बन्धित बातों का भी समावेश है।
आर्यभट्ट का पहला ग्रन्थ:
अंतरिक्ष अनुसंधान में भारत की प्रथम महान् उपलब्धि—
19 मई, 1674 की प्रात: वेला में अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन रूपी पंच परमेश्वरों के दम्भ को कदम करते हुए भारत ने सफल प्रथम अणु-विस्फोट कर अपने को छठा अणु शक्ति सम्पन राष्ट्र सिद्ध शील ऐश्वर्व को देख न सके थे परंतु श्वानों का प्रलाप गजराज की मदोन्मत्त गति में कोई अंतर न ला सका। वह अपने गौरवपूर्ण ग्न्तव्य की ओर बढ़ता गया और वे यथा स्थान, यथास्थिति में ही रहे।
आर्यभट्ट के वैज्ञानिक कार्य:
"आर्यभट्ट की प्रतिभा इतनी व्यापक थी कि हम पाँचवीं शताब्दी के इस खगोलशास्त्री को बीसवीं सदी का अर्थशास्त्री कह सकते हैं। आर्यभट्ट भारतीय इतिहास में एक महान् व्यक्तित्व के रूप में उभरे और उसके वैज्ञानिक कार्य का प्रसार चारों और हुआ। हम इस बात की प्रसन्नता है कि भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट ही रखा गया, हमारा यह उपग्रह भारतीय वैज्ञानिकों की योग्यता तथा परिश्रम का प्रतिक था।"
उस महान् खगोलचास्त्री की स्मृति को हरा-भरा रखने के लिए इस भारतीय प्रथम उपग्रह का नाम वैज्ञानिकों ने आर्यभट्ट रखा है। आर्यभट्ट का निर्माण गैंग्लौर के पास 'पीन्या' नामक स्थान पर भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किया गया हैं। पूर्णरूप से स्वदेशी सामग्री से विनिर्मित यह उपग्रह रूसी राकेट के आगे लगाकर रूस की भूमि से ही छोड़ा गया था क्योंकि हमारे देश में अभी ऐसे शक्तिशाली राकेट का निर्माण नहीं हुआ है जो इस उपग्रह को अंतरिक्ष में स्थापित कर सकता। इस उपग्रह का वजन 360 किलोग्राम है तथा इसका रंग नीला-बैंगनी है। इसके निर्माण में 26 महीने तथा पाँच करोड़ रूपए व्यय हुए हैं। 116 सेन्टीमीटर ऊँचे इस उपग्रह के तीन मुख्य कार्य हैं—(1) हल्की शक्ति की एक्स-रे का अध्ययन करना, (2) न्यूट्रोन्स तथा गामा किरणों की जाँच करना, तथा (3) इलेक्ट्रोन्स और अल्ट्रावालेंट किरणों का पता लगाना और उनका अध्ययन करना।
आर्यभट्ट का योगदान:
आर्यभट्ट प्राचीन भारत के एक महान गणितज्ञ और ज्योतिषाचार्य थे, जिनका प्रभाव भारतीय ही नहीं, बल्कि विश्व के गणित और खगोल विज्ञान पर भी अमिट छाप छोड़ गया। उन्हें भारतीय गणित के स्तंभों में से एक माना जाता है।
उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘आर्यभटीय’ में 120 श्लोकों के माध्यम से गणित और ज्योतिष के सिद्धांतों को सूत्ररूप में प्रस्तुत किया। यह ग्रंथ न केवल अपने समय के लिए अत्यंत उपयोगी था, बल्कि आज भी विद्वानों द्वारा अध्ययन किया जाता है।
गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट ने ‘पाई (π)’ के मान की सटीक गणना की, जो महान यूनानी गणितज्ञ आर्किमिडीज़ से भी अधिक निकट थी। उन्होंने यह सिद्ध किया कि किसी वृत्त की परिधि और व्यास का अनुपात 62,832 : 20,000 है, जो चार दशमलव स्थान तक सही है।
खगोल विज्ञान में उनका योगदान अत्यंत क्रांतिकारी था। उन्होंने सर्वप्रथम यह घोषणा की कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, जो कोपर्निकस से लगभग एक हजार वर्ष पहले कहा गया था। यह विचार उस समय के लिए न केवल साहसी था, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी प्रोत्साहित करने वाला था।
स्थान-मूल्य अंक प्रणाली का भी स्पष्ट उल्लेख उनके कार्यों में मिलता है। यद्यपि उन्होंने शून्य के लिए कोई विशेष प्रतीक नहीं दिया, परंतु उनकी पद्धति में शून्य की अवधारणा निहित थी — जो बाद में भारतीय गणित की पहचान बन गई।
आर्यभट्ट ने पृथ्वी की परिधि 39,968.0582 किलोमीटर "मापी, जो आधुनिक वैज्ञानिक गणना" 40,075.0167 किलोमीटर से केवल 0.2% ही कम है। यह उपलब्धि उस युग में, जब कोई आधुनिक उपकरण नहीं थे, अत्यंत आश्चर्यजनक और प्रेरणादायक है।
संक्षेप में कहा जाए तो आर्यभट्ट न केवल भारत के, बल्कि विश्व के गणित और खगोल विज्ञान के इतिहास में एक अमिट नाम हैं, जिनका योगदान युगों तक याद रखा जाएगा।
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