बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ महादेवी वर्मा की हिन्दी कविता

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ Been Bhi Hoon Mein Tumhari Ragini Bhi Hoon By Mahadevi Verma

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ महादेवी वर्मा

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ Been Bhi Hoon Mein Tumhari Ragini Bhi Hoon By Mahadevi Verma

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ!

नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में,
प्रलय में मेरा पता पदचिन्ह जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बन्धन में,
कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ!

नयन में जिसके जलद वह तुषित चातक हूँ,
शलभ जिसके प्राण में वह ठिठुर दीपक हूँ,
फूल को उर में छिपाये विकल बुलबुल हूँ,
एक हो कर दूर तन से छाँह वह चल हूँ;
दूर तुमसे हूँ अखण्ड सुहागिनी भी हूँ!

आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के,
शून्य हूँ जिसको बिछे हैं पाँवड़े पल के,
पुलक हूँ वह जो पला है कठिन प्रस्तर में,
हूँ वही प्रतिबिम्ब जो आधार के उर में;
नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ!

नाश भी हूँ मैं अनन्त विकास का क्रम भी,
त्याग का दिन भी चरम आसक्ति का तम भी
तार भी आघात भी झंकार की गति भी
पात्र भी मधु भी मधुप भी मधुर विस्मृत भी हूँ;
अधर भी हूँ और स्मित की चाँदनी भी हूँ!

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ कविता का शारांस

कवयित्री महादेवी वर्मा की यह कविता प्रणयानुभूति से प्रेरित है। कवि अपने प्रिये के प्रति समपर्ण-भाव दर्शाती हुई स्वयं को बीन कहती है।जिस बीन से रागनी स्पन्दित होती है वह कवयित्रि की सुखद अनुभूति की ही परिचायक होती है। करुणा की अनुभूति में आकर कवयित्री समष्टिगत अनुभूति एक आती हैं और उनका दुःख सुख में परिणत हो जाता है। कवयित्री की मानसिक यात्रा एक रहस्यवाद की यात्रा सिध्द होती है। कवयित्री कहती है कि यह अनुभूति मेरे जीवन की प्रथम जागृति है। जीवन के प्रलयावस्था में पद चिन्ह अंकित है। 

कवयित्री ने सुख-दुःख के अंतर को निर्मल करती हुई जीवन की सससता प्राप्त करने लगती है। अतएव बीन-रागिनि, कुल-प्रवाह, जलद-चातक, शलभ-दीपक, आग-जलबिंदु, धन-दामिनी, त्याग-आशक्ति, तार-आघात और झंकार आदि शब्दों के अंतरभाव का सम्मिलन कवि की चेतना में होता है जो समस्त विरोधावस्था को मिठा कर जीवन के आनन्ददायक अनुभूतियों में परिणत कर देते हैं।कवयित्री का समर्पण-भाव जीवन के दुःखों को ध्वस्त करते हुये एक तृप्ति में आकर समाहित हो जाता है। 
 
प्रस्तुत कविता में रहस्यानुभूति की भी अभिव्यक्ति होती है। व्यष्टि से समष्टि की यात्रा का ही प्रतिफल है जो कवयित्री को दुःखों से मुक्त करती है। अनंत ईश्वर की कल्पना से जीवन को एक नवीन साँचे ढाल लेना ही जीवन का वास्ताविक उद्देश्य है। परमानन्द की अनुभूति ही जीवन के भव-सागर से मुक्त करा सकता है। कवयित्री की आस्था आध्यात्मिक धरातल पर आधारित है। कवयित्री समस्त मानव-जाति के दुःखों का निवारण आध्यात्मिक जागृति से दूर करती हैं। 

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