सूरदास के विनय के पद Surdaas ke Vinay ke pad

सूरदास के विनय के पद Surdaas ke Vinay ke pad

सूरदास के विनय के पद Surdaas ke Vinay ke pad

'विनय' का सामान्य अर्थ है 'झुकना'। विनय अपने से बड़ों के सामने प्रदर्षित की जाती है। 'विनय' का भक्ति और अध्यात्मक के क्षेत्र में अर्थ है-आराध्य की अभ्यर्थना, आत्म-निवेदन और उसके समक्ष अपने हृदय को खोलकर रख देना। 'विनय' के अंतर्गरत अपने अवगुणों और पापों की आत्म-स्वीकृत की भावना भी भरी हुई होती है और अपने उध्दार के लिए उपास्य से प्रार्थना-विनय भी की जाती है। भक्ति के क्षेत्र में विनय का बड़ा मान है। 

(1)स्याम गरीबनि हूँ के गायक
(2)कहा गुन बरनौं स्याम, तिहारे
(3)दिनानाथ अब बारी तुम्हारी
(4)आजु हौं एक-एक करि टरिहौं
(5)प्रभु हौं बड़ी बेर को ठाढ़ो 
(6)मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै
(7)अब हौं सरनागत आयो। और
(8)हमारे प्रभु, औगुन चित न धरौ। 

अवतरण:
स्याम गरीबनि हूँ के गायक। 
दिनानाथ हमारे ठाकुर, साँचे प्रीति-निबाहक। 
कहा विदुर की जाति-पाँति, कुल, प्रेम-प्रति के लाहक। 
कहा पांडव कै घर ठकुराई? अर्जुन के रथ-वाहक। 
काह्य सुदामा कै धन हौ? तौ सत्य प्रीति के बाहक। 
सूरदास सठ, तातैं हरि भजि आस के दुःख-दाहक। 

अर्थ:श्याम दीनबंधु हैं। दिन-हिनों पर अद्भुत प्रीति रखनेवाले हैं। वे जाति, वर्ण, धर्म, उच्चता-नीचता के स्तर का बिना विचार किये सबको अपनी कृपा का अक्षय कोष दान में देते हैं। वे भक्तों की, आर्तजनों की प्रीति का निर्वाह करनेवाले हैं। विदुर अधम जाति के थे परंतु श्याम के अनन्य प्रेम के भाजन थे। वे पाण्डों के ठाकुर उस समय बने थे जिस समय पांडव दर-दर की ठोकरें खा रहे थे। अर्जुन के पास क्या था जो वे उनके रथ के सारथी बन गयें। सुदामा रंक थे और कृष्ण द्वाराकाधीश। परंतु उन्होंने सुदामा को रंक से राजा बना दिया। उन्होंने यह सब केवल अपने पर सच्ची प्रीति रखनेवालों के निमित्त किया। इन्हीं विश्वासों को आधार बनाकर शठ सूरदास भी आपका भजन करता है कि आप उसके दुःख भी हर लेंगे। 

अवतरण:
दिनानाथ अब बारी तुम्हारी। 
पतित उधारन बिरद जानिकै, बिगरी लेहु सँवारी। 
बालापन खेलत ही खोयौ जुवा विषय-रस मातौं।। 
सुतनि तज्यौ, तिय भ्रात तज्यौ, तन तें त्वचा भई न्यारी। 
श्रवन न सुनत, चरण गति थाकौ, नैन भए जलधारी। 
पलित केस, फक कंठ बिरुध्यै कुल न रति दिन-राती। 
माया-मोह न छाँडे तृष्णा, रे दोऊ दुख-थाती।। 
बिरह बिथा दूरि करिबे कों और न समरथ कोई। 
सूरदास प्रभु करुना-सागर, तुमतें होई सो होई।। 

अर्थ:इस पद में सूरदास अपने आराध्य श्रीकृष्ण से कहते हैं-हे दिनानाथ! आपके लिए ऐसा मौका फिर नहीं आयेगा। आप अपने विरुद (बढ़ाई) की रक्षा कर लीजिये। अपने छोटे-छोटे पतितों का उध्दार कर संभवत: मन में यह गर्व पाल लिया है कि' मैं अधम उध्दारन हूँ। मुझे जैसे पतित का उध्दार करके देख लीजिये। आज तक आपका पाला मुझ जैसे पामर से नहीं पड़ा होगा। मेरे पाप की कहानी छोटी नहीं है। मैंने बचपन खेलते हुए बीता दिया। यौवन को विषय-वासनाओं के रसास्वादन की भेंट चढ़ा दिया। बढ़ापा आ चुका है। मेरी अशक्य दशा का हाल सुन लीजिये। पुत्र ने त्याग दिया है। पत्नी और भाई ने भी साथ छोड़ दिया है। और तो और त्वचा लटक चुकी है। हड्डी से उसका नाता छुट चुका है। कान से सुनायी नहीं पड़ता। थोड़ी दूर चलने पर ही गाँव तक जाते हैं। आँखों से पानी बहता रहता है। केश पक झड़ गये हैं। कंठ कफ से अवरुध्द है। दिन-रात तड़पने हुए बिताता है। चैन नहीं मिलता। माया, मोह और तृष्णा ने कभी साथ नहीं छोड़।मुझे भली-भाँति ज्ञात है कि मेरे कष्टों का निवारण आपको छोड़कर कोई अन्य नहीं कर सकता। ऐसी सामथ्र्य और किसी में नहीं है। हे प्रभु! आप करुणा के सागर हैं। आपसे ही मेरा उध्दार सम्भव है। आपके किये ही यह काम हो सकता है, अन्यथा नहीं। इस पद में सूरदास ने अपने पापों को स्वीकार किया है। अपने पातक के प्रति उनके मन में सच्ची ग्लानि उपजी है। जब तक शरीर समर्थ रहा, भगवान याद नहीं आये लेकिन जब एक-एक कर सभी साथ छोड़ते चले गए, शरीर के एक-एक अंग ने जवाब दे दिया तब प्रभु याद आ गए। इसलिए वे अपने उध्दार के लिए अपने, आराध्य को आर्त स्वर में पुकार हैं। यह पाप-स्वीकार, आत्मा-दैन्य की भावना और आराध्य की करुणा पर अमित विश्वास दशलक्षणा भक्ति के अनुरूप है। 

अवतरण:
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै। 
जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिरी जहाज पर आवै। 
कमल-नैन को छाँडि मरुतम, और देव को ध्यावै। 
परम गंग को छाँडि पियासौ दुरमित कूप खनावै। 
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो क्यों करील-फल भावै। 
सूरदास प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै।। 

अर्थ:भक्त प्रवर कवि सुरदास कहते हैं कि मेरे मन को और कहाँ सुख मिल पायेगा? समुद्र में चलते जहाज पर बैठे पंछी को भाग देने पर भी घूम-फिर कर वह वहीं आ बैठता है (क्योंकि उसे कहीं बैठेने के लिए किनारा और ठिकाना नहीं मिलता) उसी तरह मेरा चित भी केवल अपने एक श्याम-प्रभु के ध्यान में अवस्थित होकर सुख पाता है। वह व्यक्ति तो परम मुर्ख ही होगा जो कमल नयन कृष्ण को छोड़कर किसी और देवता का ध्यान करेगा। गंगा के तीर पर रहनेवाला यदि प्यास बुझाने के लिए कुआँ खुदवाये तो उसे दुर्मति छोड़कर और क्या कहा जायेगा? जिस मधुकर (भौंरे) ने कमल के मधुर रस का पान कर लिया हो, उसे करील का फल क्यों अच्छा लगने लगा? जिसके घर में कामधेनु हो, वह छेरी को क्यों दुहायेगा?-इन प्रश्नात्मक विचारों के धरातल पर सूरदास ने उत्तरस्वरूप यही कहा है कि जब देवों के देवाधिदेव श्रीकृष्ण जिसके आराध्य हों, वह अन्य की उपासना क्यों करेगा? उन्हें छोड़कर अन्य के भजनोपासना से सुख-शान्ति नहीं मिल सकती। 

अवतरण:
हमारे प्रभु, औगुण चित न धरौ। 
समदरसी है नाम तुम्हारी सोई पार करौ।। 
एक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ। 
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ।। 
इक नदिया इक नार कहावत, मैली नीर भरो। 
जब मिलि गये सब एक वरन है, सूरसरि नाम परौ।। 
इक माया, इक ब्रहा कहावत, सूर स्यामा झगरौं। 

अर्थ: हे प्रभु! मेरे अवगुणों का ख्याल न करो। आपका नाम तो समदर्शी है। आप तो पापी और पुण्यात्मा में कोई भेद नहीं करते। इसलिए आपसे मुझ अवगुणों की खान पापात्मा की प्रार्थना है कि मुझे भव-सागर से पार करो। प्रभु! लोहा के बने पूजा के पात्र घर में और परशु वधिक के घर में होते हैं। लेकिन पारस इनमें अन्तर नहीं करता। वह अपने पावन स्पर्श से दोनों को एक समान कंचन बना देता है। नदी का स्वच्छ जल और नाले का गंदा पानी जब गंगा में मिल जाता है तब दोनों एकाकार होकर गंगा ही कहलाते हैं। एक को माया और एक को ब्रह्य कहा जाता है माया और ब्रह्य के द्वन्द्व में पड़ता व्यर्थ है। हे प्रभु मैं तो नाले का गंदा पानी और वधिक का परशु जैसा पतित, अस्वच्छ, अपावन और पापात्मा हूँ लेकिन आप तो समदर्शी, गंगा जैसे पावन और पारस-स्वरूप हैं। अत: इस बार इस पतित को उबार लीजिये अन्यथा पतितोध्दार का आपका प्रण निष्फल चल जायेगा। 

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