Jhansi Ki Rani Laksmibai Biography in Hindi

रानी लक्ष्मीबाई Jhansi Ki Rani Laksmibai Biography in Hindi

भारतवर्ष त्याग और बलिदान की भूमि है। यहाँ जितना त्याग पुरुषों ने किया, उतना ही किसी न किसी रूप में नारियों ने भी। पुरुषों ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए युध्दों में प्राण दिए, तो स्त्रियों ने भी जौहर की ज्वाला में भस्मसात् होकर अपने अमूल्य बलिदानों का परिचय दिया। मातृभूमि की रक्षा के लिए किसी ने अपने भाई को सजाया किसी ने अपने पति को परंतु ऐसे उदाहरण कम हैं, जिन्होंने स्वयं ही रणभूमि में स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर अपने को हसंते-हसंते चढ़ा दिया हो। ऐसी आदर्श महिलाओं में झाँसी की रानी लक्ष्मी-बाई अग्रण्य हैं अपने देश से विदेशियों को बाहर निकालने के लिए उन्होंने घोर युद्ध किया। जिस स्वतन्त्रता रूपी मधुर फल का आज हम लोग आस्वादन कर रहे हैं, उसका बीजारोपण महारानी लक्ष्मीबाई ने ही किया था।स्वतन्त्रता संग्राम का श्री श्रीगणेश झाँसी की रानी के कर-कमलों से सम्पन्न हुआ था। और इस पवित्र यज्ञ में प्रथम आहुति भी उन्होंने दी थी। भारतीयों के लिए उनका आदर्श जीवन अनुकरणीय है। 
रानी लक्ष्मीबाई 
रानी लक्ष्मीबाई

रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय-
लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी के उत्तरप्रदेश में 19 नवम्बर 1828 की हआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से सब उसे मनु कहते थे। लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपंत और माता का नाम भागीरथी था। बालिका के जन्म के समय ये लोग काशी वास कर रहे थे, क्योंकि बाजीराव द्वितीय राजगद्दी से हटा दिए गए थे और वे बिठूर में रहकर अपना जीवन यापन कर रहे थे। सन् 1858 में भागीरथी के गर्भ से एक कन्या ने जन्म लिया, जिसका नाम मनुबाई रखा गया। आगे चलकर ये ही लक्ष्मीबाई और झाँसी की रानी हुई। जन्म के चार, पाँच वर्ष बाद ही मनुबाई की माता का देहावसन हो गया, मोरोपंत काशी से बिठूर लौट आए। मनुबाई के लाइन-पालन का सारा भार अब इन्हीं पर था। बाजीराव पेशवा के दत्तक पुत्र नाना साहब और रावसाहब के साथ मनुबाई खेलती और पढ़ती थी। सभी इन्हें छबीली ने नाम से पुकारते थे। पढ़ने और लिखने के साथ-साथ मनुबाई नाना साहब के साथ अस्त्र-शस्त्रों का भी अभ्यास करती, किसी विशेष उद्देश्य से नहीं, केवल खेल के बहाने से ही शस्त्रों के साथ घोड़े पर चढ़ना, नदी में तैरना, आदि गुण भी यथावत् सीख लिए थे। इस विषय में सुभद्रा जी ने लिखा है–

नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी। 
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी सखी सहेली थीं।। 

बिठूर के स्वतन्त्र वातावरण में बाजीराव पेशवा की स्वतन्त्रता से भरी हुई कहानियों ने उसके हृदय में स्वतन्त्रता के प्रति अगाध स्नेह उत्पन्न कर दिया था। 

रानी लक्ष्मीबाई का विवाह-
मनुबाई का विवाह सन् 1842 में झाँसी के अंतिम पेशवा राजा गंगाधर राव के साथ हुआ। मनुबाई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। राजमहलों में आनन्द मनाए गए, प्रजा ने प्रसन्नता में घर-घर दीप जलाये। लक्ष्मीबाई प्रजा के सुख-दुख का विशेष ध्यान रखती थी, उन्होनें राजमाता के पद से अपनी प्रजा को कभी कष्ट नहीं होने दिया, फलस्वरूप प्रजा भी उन्हें अपने प्राणों से अधिक चाहती थी। विवाह के नौ वर्ष बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, गंगाधर राव प्रसन्नता से फूले न समाए, राजभवनों में शहनाइयाँ बज उठीं। परंतु जन्म से तीन महीने बाद ही वह इकलौता पुत्र चल बसा। क्या पता था कि वह लक्ष्मीबाई की गोद को सैदेव-सैदेव के लिए सूनी करके जा रहा है। पुत्र वियोग में गंगाधर राव बीमार पड़ गये। अनेक उपचारों के बाद भी जब स्वस्थ न हुए, तब उन्होंने अंग्रेज एजेंट की उपस्थिति में ही दामोदर राव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया। रानी के उपर अभी विपत्ति के काले बादल मँडरा रहे थे।18 नवम्बर 1853 को रानी का सौभाग्य सूर्य सदा के लिए अस्त हो गया, किसे पता था कि इतने लाड़-प्यार से पली मनुबाई 28 वर्ष की छोटी सी अवस्था में ही वैधव्य का मुख देख लेगी। सारे राज्य में भयानक हाहाकार मच गया, राजभवन की चित्कार सुनकर जनता का हृदय विदीर्ण होने लगा, परन्तु विधावा की गति के सामने किसकी इच्छा चलती  है। 

गंगाधर राव की मृत्यु के पश्चात झाँसी को असहाय और अनाथ समझकर आँग्रेजों की स्वार्थल्पसा भड़क उठी। वे अपने साम्राज्य विस्तार के चक्कर में थे। उन्होंने दत्तक पुत्र को अपने एक पत्र में अवैधानिक घोषित कर दिया और रानी को झाँसी छोड़ देने की आज्ञा हुई। परंतु लक्ष्मीबाई ने स्पष्ट उत्तर भेज दिया कि झाँसी मेरी है, मैं प्राण रहते इसे छोड़ नहीं सकती।"

रानी ने विचार किया अंग्रेज कूटनीतिज्ञ हैं। इनके साथ कूटनीति से ही काम लेना चाहिए। महारानी लक्ष्मीबाई ने देश को स्वतन्त्रता का अमर संदेश दिया। स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर स्वयम् बलिदान होकर भारतियों के लिए एक आदर्श-प्रशस्त किया। उनका त्याग और बलिदानपूर्ण जीवन भारतियों के लिए आज भी अनुकरणीय है। उनके जीवन की एक-एक घटना आज भी भारतियों में वन-स्फुर्ति और नव चेतना का संचार कर रही है। आज उनकी यशोगाथा हमारे लिए उनके जीवन से अधिक मुल्यवान है। 

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