जाड़े की रात पर निबंध - Essay on Winter's Night in Hindi

शीत ऋतु पर निबंध – Essay on Winter 

शीत ऋतु पर निबंध – Essay on Winter


प्रारंभ:-
जाड़े का दिन भले ही किसी कवि को अपनी प्रेयसी के बदन का निखार मालूम पड़ता हो, किंतु जाड़े की रात! मत पूछिए, वह कटती। हाँ, कनक-कुबेरों, सामंतों और सरदारों के पास इतने सामान रहते हैं कि उन्हें शिशिर का शित कुछ कर नहीं पाता—किंतु, साधारण गरीब लोग, जिन्हें भरपेट भोजन नसीब नहीं, तन ढकने को गर्म कपड़े की बात कौन कहे, साधारण कपड़ा भी नहीं है, तीर की तरह भेदती ठंडक से उनकी हालत बड़ी दर्दनाक हो जाती है। कंबल ही जाड़े से बचाव का बल है, मगर गरीबों के लिए वह भी तो इतना महँगा पड़ता है कि वह उनकी कल्पना ही रह जाता है। संस्कृत के एक छ्न्द में कंबल की तारीफ में सवाल-जवाब का एक ही वाक्य है—

असुविधा:-
जाड़े की रात मानो संपन्नाता के स्वर्ग और विपन्नता के नरक के दृश्यों को दिखलानेवाली यंत्रनलिका हो। हमारे देश में एक ओर अमीर का इन्द्रवैभव है, तो दूसरी ओर गरीबी का रौरव— इसे दिखलानेवाली जाड़े की रात है। किसी के लिए वह मधुयामिनी है। वातानुकूलित कक्षों में मखमल के गद्दों पर जिन्हें दरिद्रता का सर्पदंश नहीं लगता, जिन्हें अभाव की सुइयों की चुभन नहीं सहनी पड़ती, उनके लिए तो वह ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है, कुदरत की अनोखी नियामत है, बहुत दुलारने पर क्षण-भर में जन्म सफल करनेवाली किस्मत की परी है। किंतु जिन्हें न तन ढकने को कपड़ा है, न पेट भरने को अन्न, फुटपाथों का आकाश ही जिनके आवास की छत है—ऐसे अभागों के लिए यह प्रकृति के सबसे बड़े अभिशाप के रूप में आती है। वह सुरसा की ज्महाई से भी लंबी, और कुंभकर्ण की नींद से भी गहरी ठहरती है। शैत्य के वाणों के डर से सूरज का रथ भी कहीं-कहीं बहुत दूर अटका रहता है—बेचारे गरीबों के पोर-पोर में जाड़ा चुभता रहता है; कभी वे अपने को, कभी अपने बनानेवाले को और कभी अपने समाज को मन-ही-मन कोसते रहते है। 

उपसंहार:-
लोग कहते हैं कि जाड़े में लोग अधिक काम करते हैं। 'जाड़ा' शब्द संस्कृत के 'जाड्य' से निकला है। मुझे तो लगता है कि जाड़े की रात लोगों को जड़ बना देती है—जिधर देखिए उधर सुनसान, आठ-नौ बजते ही बाजार श्मशान-सा नजर आता है। गाँवों में दूर-दूर पर कहीं-कहीं कोई दीया जलता है। ठंड से काँपते हुए सियार की आवाज भी ठिठुर जाती है। अत:, जाड़े की रात सचमुच अपना नाम सार्थक करती है। किंतु, ढाढ़स इसी से बँधता है कि कभी-न-कभी यह कालरात्रि अवश्य तलेगी और सुनहली सुबह आयेगी—मीठी-मीठी धूप सोना लुटायेगी, बेचारे गरीब इसे मुठ्टी-मुठ्टी लूट-लूटकर निहाल होंगे, चहकेंगे, गायेंगे और मेड़-मचिये पर गुलछर्रे छोड़ते हुए बीते दुःख दर्द भूल जायेंगे। 

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