क्या पूजन क्या अर्चना रे : महादेवी वर्मा का हिंदी कविता का सारांश
'क्या पूजन क्या अर्चना रे' (कविता)
उस असीम का सुंदर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे!
मेरी श्वासें करती रहतीं नित प्रिय का अभिनंदन रे!पद रज को धोने उमड़े आते लोचन में जल कण रे!
अक्षत पुलकित रोम मधुर मेरी पीड़ा का चंदन रे!
स्नेह भरा जलता है झिलमिल मेरा यह दीपक मन रे!
मेरे दृग के तारक में नव उत्पल का उन्मीलन रे!
धूप बने उड़ते जाते हैं प्रतिपल मेरे स्पंदन रे!
प्रिय प्रिय जपते अधर ताल देता पलकों का नर्तन रे!
'क्या पूजन क्या अर्चना रे' कविता का सारांश-
प्रस्तुत कविता में कवयित्री स्वजीवन को ही अपने प्रियतम की उपासना करने का साधन मानती हैं। यहाँ कवयित्री द्वारा जिस सहज साधना का स्वरूप प्रस्तुत किया गया है उसकी परम्परा वेदों में दृष्टिगत होती है।
यहाँ पुनरक्ति, अनुप्रास और साँगरूपक अलंकारों के प्रयोग हुए हैं। इस कविता में व्यवहृत भाषा की पवित्रता और उदात्तता भाव की पवित्रता के अनुरूप दृष्टिगत होती है।
कविता का संदर्भ:
इस कविता का मूल भाव यह है कि सच्चे प्रेम और भक्ति में बाहरी आडंबर और पूजा-अर्चना का महत्व नहीं होता। महादेवी वर्मा ने इस कविता में यह दर्शाने का प्रयास किया है कि भगवान का वास्तविक निवास हमारे दिल में है, और सच्चे प्रेम से ही उनकी प्राप्ति हो सकती है।
कविता के माध्यम से महादेवी वर्मा यह संदेश देना चाहती हैं कि भक्ति और प्रेम के मार्ग पर चलने वालों को बाहरी दिखावे की आवश्यकता नहीं है। असली पूजा वही है जो हृदय से की जाए, और असली भक्ति वही है जो सच्चे मन से हो। यह कविता प्रेम और भक्ति की गहराई और उसकी सच्चाई को उजागर करती है।
Tags:
Poem