यशपाल का दिव्या उपन्यास हिंदी नॉवल ऑफ यशपाल

यशपाल का दिव्या उपन्यास हिंदी नॉवल ऑफ यशपाल Divya Hindi Novel by Yashpal

'दिव्या' यशपाल की ऐतिहासिक उपन्यास है, 'दिव्या' ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर व्यक्ति और समाज की प्रवृत्ति और गति का चित्र है। लेखक ने इस उपन्यास में बौद्धकालीन जीवन का काल्पनिक चित्र अंकित किया है। यशपाल जी यथार्थ लेखक हैं। उन्होंने इस उपन्यास में माक्र्सवादी सिध्दांत पक्ष को व्यवहारिक रूप प्रदान करने की चेष्टा की है। उपन्यास की मूल समस्या के रूप में वर्ग-और अभिशप्त नारी-जीवन को लिया गया
यशपाल का दिव्या उपन्यास हिंदी नॉवल ऑफ यशपाल


'दिव्या' उपन्यास के कथा का प्रारंभ सागल नगरी में होने वाले 'मधपर्व' के आयोजन से होती है। इस उपन्यास की नायिका दिव्या सागल साम्राज्य के धर्मस्थ महापंडित देवशर्मा की प्रपौत्री है। सगल 'मधपर्व' के अवसर पर कला की अधिष्धोठात्री राजनर्तकी देवी मल्लिका के निर्देशन में मराली नृत्य करके दिव्य ने 'सरस्वती पुत्री' का पुष्पकिरीट वयोवृध्द गणपति से प्राप्त किया। उसी दिन तक्षशिला और मगध से शास्त्र और की शिक्षा पूर्ण कर आए ब्राह्मण एवं यवन कुमारों के शस्त्र-कौशल की प्रतियोगिता का भी कार्यक्रम था। दासपुत्र पृथुसेन प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ खड़ गधारी घोषित किया और परम्परा के अनुरूप  'सरस्वती पुत्री' दिव्या ने पुष्प मुकुट पहनाया। उसी दिन दिव्या की शिविका में कन्धा लगाने के अवसर पर रुद्रधीर ने पृथुसेन को दासपुत्र कहकर अपमानित किया और उसे कंधा लगाने के अधिकार से वंचित कर दिया। अपमानित पृथुसेन न्याय की पुकार लेकर न्यायप्रिय धर्मस्थ के प्रासाद में गया। दिव्या ने धर्मस्थ के आदेश से अतिथि पृथुसेन का स्वागत-सत्कार किया। साथ ही, उसने पृथुसेन को न्याय का आशवासन भी दिया। इसी समय से दिव्या के हृदय में पृथुसेन के प्रति प्रेम-भाव का उदय होता है। इसी समय सागल पर केंद्रस्थ का आक्रमण होता है। अवसर का लाभ पृथुसेन का पिता प्रेस्य उठाना चाहता है और अपने पुत्र को युद्ध के लिए आगे कर गणपति और धर्मस्थ की विशेष कृपा प्राप्त की। पृथुसेन ने सेना का उत्साह से नेतृत्व संभाला। प्रस्थान से पूर्व दिव्या ने उसके समक्ष अपने तन और मन का समपर्ण कर दिया। पृथुसेन में उत्साह का दूना आवेश बढ़ गया। उसने न केवल केंद्रस की गति का ही रोक दिया, वरन् उसके आधे प्रदेश को भी जीत लिया। युध्द में विजय प्राप्त कर पृथुसेन जब वापस लौटता है तब दिव्या से मिलने के लिए जाता है। अपने शरीर में पृथुसेन के गर्भ की उपस्थित से दिव्या को एक ओर तो गर्व और उल्लास होता है। परन्तु दूसरे ही क्षण संकोच अनुभव कर पृथुसेन से नहीं मिलती है। दिव्या की इस विवशता का लाभ सीरो उठाती है और पृथुसेन पर अपना अधिकार जमा लेती है। पृथुसेन के पिता दूरदर्शी हैं और सीरो से विवाह कर लेने को तैयार कर लेते हैं। वे कहते हैं-"स्त्री जीवन की पूर्ति नहीं, जीवन की पूर्ति का एक साधन मात्र है। "पृथुसेन का विवाह सीरो से हो जाता है और दिव्या अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाती हुई दासी छाया के साथ प्रासाद से निकल जाती है। यहीं से दिव्या के जीवन की त्रासदी का आरंभ होता है। एक वृध्द ने दिव्या और दासी दोनों को आश्रम के बहाने बंदी बना लिया। इधर दिव्य के वियोग में धर्मस्थ अपने प्राण त्याग देता है। दास व्यवसायी प्रतूल दिव्या के साथ-साथ अन्य दास-दासियों को लेकर मद्र गणराज्य से मथुरापूरी चला जाता हैं। यहाँ प्रतूल मथुरा के दास-व्यापारी भूधर को गर्भवती दिव्या का दारा के रूप में परिचय देकर इस असाधारण सुंदरी को बेचने का प्रस्ताव देता है। भूधर ने मोलभाव के बाद दारा को खरीद लिया और प्रसव के बाद एक पुरोहित के हाथ पचास स्वर्ण मुद्रा में दिव्या को सन्तान सहित बेच दिया। पुरोहित चक्रधर की रुग्ण पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया था। ब्राह्मण पत्नी के स्तन सुख गए थे, जिस कारण दिव्या ही दोनों नवजात शिशुआओं को अपना स्तनपान कराने लगी। द्विज पत्नी की आज्ञा थी कि पहले स्वामिनी के पुत्र को स्तनपान कराओं। उसे पान कर देने के बाद उसके अपने पुत्र आकुल के लिए दूध शेष नहीं रहता। अपनी संतान को क्षुधित देखकर दिव्या का मन रो उठता। वह अपने ही स्तन के दूध की चोरी करने लगी। दिव्या को यहाँ प्रतिदिन प्रताड़ना सहनी पड़ती थी। जैसे व्यवहार आँगन में बँध गाय के साथ होता था, वैसे ही व्यहार उसके साथ होने लगा था। एक दिन किसी बौद्ध श्रमण उपदेश से प्रभावित होकर महाबोधित चैतन्य के बौद्ध स्थविर के समक्ष अपनी स्नतान को छाती से चिपकाए शरण की कामना में पहुँच जाती है। बिना मालिक (अभिभावक) की अनुमति के संघ स्त्री को शरण नहीं दे सकता था। वह वेश्या को स्वतंत्र नारी मानकर उसे शरण दे सकता था। यहाँ यशपाल ने बौद्ध धर्म के नियमों पर प्रश्न चिह्न लगाया है। वह अपने को असहाय महसूस करने लगी और जीवन से निराश होकर मृत्यु को वरण करने के उद्देश्य से यमुना की जलधारा में कूद पड़ी। यहाँ भी भाग्य उसका साथ नहीं देता है। उसका पुत्र तो निष्प्राण हो जाता है, परन्तु वह राजनर्तकी देवी रत्नप्रभा के द्वारा बचा ली जाती है। चक्रधर पुरोहित दिव्या को पुन: प्राप्त करने के लिए रवि शर्मा से न्याय की याचना करता है, परंतु राजनर्तकी रत्ना के हस्तक्षेप से दिव्या की रक्षा हो जाती है। रत्नप्रभा दिव्या के प्रति दयालु थी। उसका गुण और रहस्य जानकर वह उस पर आदर से अनुरक्त हो गयी। उसने दिव्या का नाम अंशुमाला रखा। नाम बदलने के साथ ही उसका संसार भी बदल गया। उसके कारण रत्नप्रभा का प्रसाद कला तीर्थ बन गया। यहीं पर मारिश की भेंट अंशुमाला से होती है और वह अंशुमाला को पहचान लेता है। वह कहती है-"आर्य, अब मैं दिव्या नहीं हूँ। अब कुमारी भी नहीं हूँ। देवी रत्नप्रभा की क्रित दासी वेश्या नर्तकी की अंशुमाला हूँ। मारिश ने दिव्या के मन में अपने प्रति प्रेम को जगाने का कार्य किया। आर्य रुद्रधीर भी उसके नाम के डोरे में बँधा उसके समीप उपस्थित होता है। वह दिव्या के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है, परंतु दिव्या इसे अस्वीकार कर देती है। रुद्रधीर प्रवास की लम्बी अवधि समाप्त कर सागल में प्रवेश करता है। इस समय तक पृथुसेन और सीरो के बीच का विवाह संबंध में विच्छेद की स्थिति आ गई थी। रुद्रधीर पृथुसेन की हत्या कर देने का षड्यंत्र रचा, परन्तु पृथुसेन को षड्यंत्र का कुछ सुराग लग जाता है और प्राण बचाते हुए बुध्दरक्षित संघ में शरण ग्रहण कर लेता है। बाद में पृथुसेन भिक्षुक रूप में वहाँ से निकल जाता है। देवी मल्लिक उत्तराधिकारिणी की खीज में मधुरा जाती है और दिव्या को लेकर सागल लौट आती है। ब्राह्मण कन्या दिव्या को वेश्या के आसन पर बिठाकर वर्णाश्रम को अपमानित नहीं कर सकती थी। यहाँ भी वह निराश्रय होकर पान्थशाला में चली जाती है। यहाँ भिक्षुक पृथुसेन, आचार्य रुद्रधीर और मारिश तीनों उसे आश्रय देने के लिए आगे बढ़ते हैं। दिव्या अन्त में मारिश के आश्रय को स्वीकार करती हुई कहती है-"आश्रय दो आर्य।" 'दिव्या' उपन्यास के पात्र यथार्थ जगत के पात्र हैं। पात्रों को सजीवता एवं विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए यशपाल ने वैयक्तिक विशेषताओं को उभार कर अंतर्द्वंद्व को प्रस्तुत किया हैं। सभी प्रमुख पात्र अंतर्द्वंद्व के दौर से गुजरते दिखाई देते हैं। दिव्या, मारिश, पृथुसेन, रत्नप्रभा,मल्लिक, चिबुक रुद्रधीर आदि पात्र इसके उदाहरण हैं। दिव्या-पृथुसेन, दिव्या-मारिश, दिव्या-रुद्रधीर, पृथुसेन-सिरो आदि के संवाद विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कथोपकथन या संवाद की दृष्टि से इस उपन्यास में स्वाभाविकता है। 


पृथुसेन का चरित्र-चित्रण:-
यशपाल कृत ऐतिहासिक उपन्यास 'दिव्या' का एक प्रमुख पुरुष पात्र पृथुसेन है। इस उपन्यास में पृथुसेन प्रेस्थ का पुत्र है। उसका लालन-पोषण अभिजात वर्ग के बालकों के साथ हुआ था। अत: उसमें आत्मा-गौरव की भावना थी। उसका आकर्षण व्यक्तित्व प्रभावशाली था। उपन्यास के आरंभ में हम उसे भद्र गणराज्य के सर्वश्रेष्ठ खंड्गधारी के रूप में देखते हैं। दिव्या की शिविका को कंधा देने से मना किए जाने पर उसने एक शक्तिशाली व्यक्तित्व का युवक के रूप में पाते हैं। जैसे-जैसे उपन्यास के कथानक का विकास होता है, हमारा आकर्षण उस पर क्रमश: कम होता जाता है और अन्त में हम उसे एक कायर यश-लोलुप व्यक्ति के रूप में पाते हैं। 'दिव्या' उपन्यास के कथानक में पृथुसेन के चरित्र के तीन रूप मिलता हैं। पहले वह दिव्या के प्रेमी के रूप में सामने आता है, इसके पश्चात वह राजनीतिज्ञ के रूप में दिखाई पड़ता है और अन्त में भिक्षु बन जाता है। कथानक के अन्त में उसका चरित्र गौण रह जाता है।

मारिश का चरित्र-चित्रण:-
चार्वाक मारिश 'दिव्या' का सबसे जीता-जागता पात्र है, जिसे हर पाठक कौतहूल की दृष्टि से दखता है। इसी पात्र के द्वारा यशपाल ने अपने सिध्दांतों की स्थापना का प्रयाग किया है। इसी लोक में और इसी शरीर से सुख पाने का अभिलाषी वह परलोक में विश्वास नहीं करता। वह सागल का सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार, नास्तिकता और अनैतिकता के प्रतिपादन का अपवाद पाने वाला, श्रेष्ठि उपासक पुष्पकान्त का पुत्र युवक मारिश है। मारिश सर्वसाधारण की तरह रहकर भी गंभीर चिंतन और तर्क का दार्शनिक है। पूरे उपन्यास में उसका दार्शनिक रूप ही प्रमुख है। यशपाल के पात्रों में उसका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व है, जो किसी से नहीं मिलता, किसी की चिंता नहीं करता। प्रारंभ में ही सागल के उत्सव के समय इस संसार को भ्रम और दुःखपूर्ण समझने वाले बौद्ध भिक्षु का प्रतिवाद करते हुए वह दिखाई पड़ता है। उसका उच्च स्वर सभास्थल में गूँजे उठता है-"भन्ते, दुःख की भ्रान्ति में भी जीवन का शाशवत क्रम इसी प्रकार चलता है। वैराग्य में संतोष भीरु की आत्मा-प्रवांचना मात्र है। जीवन की प्रवृत्ति असंदिग्ध और प्रबल सत्य है।" वह श्रेष्ठ विचारक और चिंतक का माद्यप भी है। और फिर वह माद्यपों के बीच दिखाई देता है और वहाँ अपने दर्शन और चिन्तन का प्रतिपादन करता है। निवृत्ती मार्ग भीरुता का दूसरा नाम है, प्रवृत्ति-मार्ग ही जीवन का श्रेय है, और इसी सिध्दांत के प्रतिपादन के लिए यशपाल ने मारिश का निर्माण किया है।

सीरो का चरित्र-चित्रण:-
यशपाल कृत 'दिव्या' उपन्यास की एक प्रमुख स्त्री पात्र 'सीरो' है। दिव्या से ठीक विपरीत पात्र है सीरो का जो अपने समग्र रूप में छल-प्रपंच के कर्दम में सनी हुई प्रतीत होती है। सत्ता ही उसके जीवन का लक्ष्य है और भोग ही उसका अभिलाषा है। इन दोनों कि प्राप्ति के लिए वह कुछ भी कर सकती है। उसके पास न तो कोई आदर्श है और न तो कोई आचार-विचार। पुरुष रूपी खूँटे में बँधकर रहना वह नारी की दुर्बलता समझती है। जिससे भी तृप्ति मिल जाए, उसी की ओर अभिमुख हो जाने में ही वह अपने जीवन की सार्थकता समझती है। संक्षेप में 'सीरो' प्रेम की नहीं अवसरवादी प्रवृत्ति की गोट है, जो दिव्या को भी पीट देती है, और पृथुसेन को भी मात देती है। सीरो के पिता और प्रेस्थ-पृथु के पिता के शह से पृथुसेन मात रखा जाता है। 

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