दुर्गा पूजा पर निबंध Durga Puja par Nibandh Essay On Durga Puja in Hindi

दुर्गा पूजा पर निबंध Durga Puja par Nibandh Essay On Durga Puja in Hindi

दुर्गा पूजा पर निबंध Durga Puja par Nibandh

दुर्गा पूजा पर निबंध Durga Puja par Nibandh Essay On Durga Puja in Hindi

दुर्गा पूजा भारत के महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक हैं।दुर्गा पूजा को दुर्गोंतस्व या शरदोतस्व के नाम से भी जाना जाता है। यह त्योहार प्रति वर्ष आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है, जिसमें 6 दिनों का महालाया होता है इस छठे दिन को सष्टी पूजा कहा जाता है, सातवे दिन को सप्तमी पूजा, आठवें दिन को अष्टमी पूजा और नवी दिन को महानवमी पूजा और उसके अगले दिन को विजयदशमी के रूप में इस पूजा को मनाया जाता हैं।इस नौ दिन कि पूजा में माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है।शैलपुत्री, बृह्मचारिणी, चंद्रघण्टा,कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यानी, कालरात्रि, महागोरि,सिध्दिधारी तथा माँ दुर्गा को शक्ति की देवी भी कहा जाता है उन्हें शक्ति की देवी इसलिए कहा जाता है क्यों माँ दुर्गा और महिषासुर असुर से युध्द करने के पश्चात महिषासुर का दसवें दिन माँ दुर्गा ने वध कर दिया। ऐसे असुरों का वध होने की खुशी में यह पूजा हम बहुत धूम-धाम से मनाते हैं।वही दूसरी और भगवान राम ने इसी दिन रावण से युध्द के उपरांत रावण पर विजय प्राप्त किया इस दिन एक साथ दो असुरों का अन्त हुआ और इस प्रकार असत्य पर सत्य की विजय हुई और इसलिए इस दशमी को 'विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। विशेष रूप से दुर्गा पूजा को पूर्वी बंगाल, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड, असम, दिल्ली, ओडिशा, पश्चिम बंगाल में इस त्योहार को बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता हैं। 

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दुर्गा पूजा पर निबंध Durga Puja par Nibandh

प्रथम दिन माँ शैलपुत्री की पूजा:
नवरात्र के प्रथम दिन माँ दुर्गा का प्रथम स्वरूप माँ आदिशक्ति शैलपुत्री की पूजा की जाती है। नौ दुर्गा के नौ स्वरूपों में से प्रथम स्वरूप है देवी शैलपुत्री का और इनका पुर्नजन्म पर्वतराज हिमालय के घर में पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा।इनके बाएं हाथ में कमल का पुष्प तथा दाएं हाथ मे त्रिशूल है। देवी शैलपुत्री को मात्रशक्ति यानि कि करुणा, सन्हे, ममता का स्वरूप माना गया है, देवी शैलपुत्री बहुत ही सरल एवं सोम्य स्वभाव की है।इनका वाहन बृषभ है और इसलिए इन्हें बृषभरुढ़ा के नाम से भी जाना जाता है। 

माँ शैलपुत्री की कथा:
देवी शैलपुत्री पिछले जन्म में शिव जी की पत्नी तथा राजा दक्ष की पुत्री थी।एक बार राजा दक्ष ने अपने राज्य महल में एक विशाल यज्ञ का आयोजन करते है जिनमें सभी राजा,महाराजा देवी, देवताओं को आमंत्रित किया जाता है लेकिन भगवान शिव के औघड़ रूप के काराण राजा दक्ष उन्हें आमंत्रित नहीं करते हैं। जब देवी सती को यह बात पता चलता है कि, उनके पिता एक विशाल यज्ञ का आयोजन करेंगें तो वह इस यज्ञ मे शामिल होने का इच्छा प्रकट करती है और देवी शती अपने पति शिव जी को अपने साथ चलने के लिए कहती है पर शिव जी देवी सती से कहते है कि तुम्हारे पिता किसी कारणवश मुझे आमंत्रित नहीं किए है और ऐसे में हमें वहाँ जाना उचित नहीं लगता पर देवी शती भगवान शिव की बात नहीं मानती है। और वह बार-बार अपने पति शिव जी से आग्रह करती है भगवान शिव जी भी देवी सती को जाने की अनुमाती दे देते है।जब माँ सती वहा पहुंची तो देखा की उनका कीई भी परिजन उनसे प्रेमपूर्वक बात नहीं कर रहा है। अपने परिजनों के इस व्यवहार से देवी सती के मान सम्मान को बहुत ठेस पहुंची और तब इन्हें इस बात का आभाष हुआ कि अपने पति भगवान शिव जी की बात न मान कर उन्होनें बहुत बड़ी भूल की है। तब माता सती अपने पति भगवान शिव के अपने इस अपमान को सहन न कर सकी तो उन्होनें हो रहे उसी यज्ञ के अग्नि में अपने आप को भष्म कर दिया। इसके बाद देवी सती ने पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में पुन: जन्म लिया। और देवी शैलपुत्री के नाम से जानी गई।

माँ शैलपुत्री  की पूजा विधि:
दुर्गा पूजा के प्रथम दिन माँ शैलपुत्री की पूजा की जाती है इस पूजा मे आप सुबह उठकर स्नान कर के स्वच्छ वस्त्र धारण करें उसके पश्चात एक चौकी पर माँ शैलपुत्री की प्रतिमा और एक कलश को चौकी पर स्थापित करें।माँ को सफेद रंग अधिक प्रिय है इसलिए उन्हें सफेद रंग का वस्त्र अर्पित करें तत्पश्चात् माता को चंदन-रोली से टिका करें फिर उन्हें सफेद रंग का कमल पुष्प चढ़ाएं सफेद भोग लगाएं।और आखरी में धूप दीपक से आरती करें उसके पश्चात् माँ कि दुर्गा चालिसा, माता की कथा, दुर्गा स्तुति या दुर्गा सप्तशती का पाठ अवश्य करें ऐसा करने से माता शैलपुत्री अधिक प्रसन्न होती है और आपके सभी मनोकामना पूर्ण होगी। 

माँ शैलपुत्री के मंत्र:-
-ऊँ देवी शैलपुत्र्यों नम:।। 
-वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥

माँ शैलपुत्री  के बीज मंत्र:-
शैलपुत्री ह्री शिवायै नम:

माँ शैलपुत्री के स्तुति मंत्र:-
या देवी सर्वभूतेषु शैलपुत्री रुपेण संस्तिता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। 
वन्दे वाञ्छित कामार्थ चन्द्रार्धकृतशेखराम। 
सिंहरुढ़ा अष्टभुजा कुष्मांडा यशस्विनीम्।। 

माँ शैलपुत्री की आरती:-
शैलपुत्री माँ बैल असवार। 
देवता जय जय कर।। 

शिव-शंकर की प्रिय भवानी। 
तेरी महिमा किसी ने न जाने।। 

पार्वती सिध्दि परवान करें तू। 
जो तुझे सुमिरे सो सुख पावें।। 

रिध्दि-सिध्द परवान करें तू। 
दया करें धनवान करें तू।। 

सोमवार को शिव संग प्यारी। 
आरती जिसने तेरी उत्तारी।। 

उसकी सगरी आस पूजा दो। 
सगरे दुःख तकलीफ मिटा दो।। 

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द्वितीया दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा:
नवरात्र के द्वितीया दिन माँ दुर्गा का द्वितीया स्वरूप माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। ब्रह्न का अर्थ है तपस्या तथा चारणी का अर्थ है आचरण करने वाली इस प्रकार ब्रह्नाचारणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली।इनके बाएं हाथ में कमण्डल तथा दाएं हाथ में जप की माला है। 

माँ ब्रह्मचारिणी की कथा:
देवी ब्रह्नाचारणी का पुर्नजन्म हिमालय के घर पर पुत्री के रूप में हुआ। इस देवी ने नारद जी के कहने पर भगवान शिव को अपने पति के रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपस्याचारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी के नाम से भी जाना जाता है। माँ ब्रह्मचारिणी ने घोर तपस्या करने के साथ-साथ एक हजार वर्ष तक केवल फल-फूल खा कर बिताए तथा कुछ दिनों तक इन्होंने उपवास भी रखें और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट भी सहे।तीन हजार वर्षों तक सुखे बेलपत्र खाए और शिव जी की आराधना करती रही इसके बाद तो उन्होंने सुखे बेलपत्र खाना भी छोड़ देती है जब इतने कठोर तपस्या से भी भगवान शिव जी को प्रसन्न होते नहीं देखती है तो माँ ब्रह्मचारिणी अन्न, जल भी छोड़ देती है और निराहार रह कर तपस्या करती रही पत्तों को खाने छोड़ देने के कारण इनका नाम अपर्णा पड़ा। इनके इस कठिन तपस्या के कारण माँ ब्रह्मचारिणी का शरीर पूरी तरह से कमजोर हो गया। और सभी देवी-देवता ऋषि-मुनि ने उनके इस कठोर तपस्या का सराहना करते हुओ माँ ब्रह्मचारिणी को आशीर्वाद देते हुओ कहते है भगवान शिव तुम्हें पति के रूप में अवश्य प्राप्त होंगे। 

माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा विधि:
देवी ब्रह्मचारिणी को सबसे पहले पंचामृत से स्नान कराएं इसके बाद चौकी मे कलश के साथ देवी ब्रह्मचारिणी को अस्थापित करे  फिर रोली, कुमकुम, चंदन, सिंदूर,अक्षत आदि अर्पित करें। इन्हें गुड़ाहल या कमल का पुष्प चढ़ाएं। घी से बने भोग लगाएं। फिर धूप, दीप और कपूर से इनकी आरती करें। ऐसा करने से सिद्धि की प्राप्ति होती है।

 माँ ब्रह्मचारिणी का स्तुति मंत्र:-
या देवी सर्वभूतेषु ब्रह्नमाचारिणी रूपेण संस्थता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। 

माँ ब्रह्मचारिणी के बीज मंत्र:-
ब्रह्मचारिणी: ह्री श्री अंबिकायै न:। 

माँ ब्रह्मचारिणी की आरती:-
जय अंबे ब्रह्मचारिणी माता। 
जय चतुरानन प्रिय सुख दाता। 
ब्रह्ना जी के मन भाती हो।
ज्ञान सभी को सिखलाती हो। 
ब्रह्ना मंत्र है जाप तुम्हारा। 
जिसको जपे सकल संसार। 
जय गायत्री वेद की माता। 
जो मन निस दिन तुम्हें ध्याता। 
कमी कोई रहने न पाए। 
कोई भी दुख सहने न पाए। 
उसकी विपरीत रहे ठिकाने। 
जो तेरी महिला को जाने। 
रुद्राक्ष की माला ले कर। 
जपे जो मंत्र श्रध्दा दे कर। 
आलस छोड़ करे गुणगाना। 
माँ तुम उसके सुख पहुंचना। 
ब्रह्नाचारणी तेरो नाम। 
पूर्ण करो सब मेरे नाम। 
भक्त तेरे चरणों का पुजारी। 
रखना लाज मेरी महतारी। 

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तृतीया दिन माँ चंद्रघंटा की पूजा:
नवरात्र के तृतीया दिन माँ दुर्गा का तृतीया स्वरूप माँ चंद्रघंटा की पूजा की जाती है। देवी के मस्तक पर घंटे के आकृति का अर्धचंद्र है। और इसलिए इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है।इनके समस्त शरीर का रंग स्वर्ण के प्रकाशमान है।इस देवी के दस हस्त हैं जिनमें अस्त्र-शस्त्र सुशोभित है। माँ चंद्रघंटा का वाहन सिंह है। 

माँ चंद्रघंटा की कथा:
प्राचीन काल में जब देवताओं,असुरों और महिषासुर के मध्य भयकर युद्ध चल रहा था तब सभी देवी-देवताओं के स्वामी भगवान इंद्र का सिंहासन तथा स्वर्ण लोक पर महिषासुर अपनी मनोवृत्ति पूरी करने के लिए युध्द कर रहा था। और युध्द करने के पश्चात उसकी यह मनोवृत्ति पूर्ण हो जाती है। और समस्त असुरों के स्वामी महिषासुर स्वर्ण लोक पर राज करने लगा। और वह सभी देवी देवता का अधिकार छीन लेता है यह देख बृह्मा-विष्णु और शिव जी अत्यंत क्रोधित होते हैं।क्रोध के कारण तीनों देवों के मुख से ऊर्जा उत्पन्न हुई और देवगणों के शरीर से निकली ऊर्जा भी उस ऊर्जा में जाकर मिल गई। दसों दिशाओं में व्याप्त होने के बाद इस ऊर्जा से माँ चंद्रघंटा का अवतरण हुआ और सभी देवी देवताओं ने उन्हें अपने अस्त्र-सस्त्र प्रदान किए और तब जा कर महिषासुर से देवी चंद्रघंटा ने युध्द किया और उसका वध किया इस प्रकार असत्य पर सत्य की जीत हुई। 

माँ चंद्रघंटा की पूजा विधि:
देवी चंद्रघंटा को सबसे पहले केवड़े के जल से स्नान कराएं फिर एक चौकी मे लाल वस्त्र रखे उसके बाद देवी चंद्रघंटा को कलश के साथ स्थापित करें। इनके समस्त शरीर का रंग स्वर्ण के प्रकाशमान तो इसलिए इन्हें भूरे या चमकिले पीले रंग अधिक प्रिय है तो आप इन्हें इन रंगों का वस्त्र चढ़ाएं इसके बाद माता को केसर का दूध या फिर खिर का भोग चढ़ाएं। और फिर दीप,धूप, कपूर से इनकी आरती करें ऐसा करने से माता आपकी सारे कष्ट, दुख रोग दूर करेंगी। 

माँ चंद्रघंटा के स्तुति मंत्र:-
या देवी सर्वभूतेषु चंद्रघंटा रूपेण संस्थता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। 
रहस्यम् शृणु वक्ष्यमि शैलशी कमलानेन्। 
श्री चंद्रघंटास्य कवचम् सर्वसिध्दिदायकम्।। 

माँ चंद्रघंटा के बीज मंत्र:-
ऐं श्रीं शक्तयै नाम:। 

माँ चंद्रघंटा की आरती:-
जय माँ चंद्रघंटा सुख धाम। 
पूर्ण कीजे मेरे काम।। 

चन्द्र समाज तू शीतल दाती। 
चन्द्र तेज किरणों में समाती।। 

क्रोध को शांत बनाने वाली। 
मीठे बोल सिखाने वाली।। 

मन की मालक मन भाती हो। 
चंद्रघंटा तुम वर दाती हो।। 

सुन्दर भाव के लाने वाली। 
हर संकट में बचाने वाली।। 

हर बुधवार को तुझे ध्याये। 
श्रध्दा सहित तो विनय सुनाए।। 

मूर्ति चंद्र आकार बनाए। 
शिश झुका कहे मन की बात।। 

पूर्ण आस करो जगत दाता। 
कांचीपूर स्थान तुम्हारा।। 

कर्नाटिका में मान तुम्हारा। 
नाम तेरा रटू महारानी।। 

भक्त की रक्षा करो भवानी।

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चतुर्थ दिन माँ कुष्मांडा की पूजा:
नवरात्र के चतुर्थ दिन माँ दुर्गा का चतुर्थ स्वरूप माँ कुष्मांडा की पूजा की जाती है।कु का अर्थ है छोटा तथा उष्म का अर्थ है ऊर्जा और अंडा यानी की गोला ब्रह्मांड का प्रतिक है। इनके आठ भुजा हैं इसलिए इन्हें अष्टभुजा भी कहते है। इनके सात हाथ में धनुष ,बाण, कमल पुष्प, कमंडल, चक्र, गदा, कलश तथा आठवें हाथ में जप की माला सुशोभित हैं। देवी कुष्मांडा का वहान सिंह है। इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर हैं। 

माँ कुष्मांडा की कथा:
पौराणिक कथा के अनुसार कहा जाता है कि जब ब्रह्मांड के चारों और अंधकार छाया हुआ था और सृष्टि का स्तित्व नहीं था तब माँ कुष्मांडा ने अपनी मन्द मुस्कान से ब्रह्मांड के चारों और प्रकाशित कर सृष्टि की रचना की थी। सलिए इन्हें आदि-स्वरूप यानि आदिशक्ति का रूप माना गया हैं। इनके शरीर का चमक सुर्य के समान है। और माँ कुष्मांडा का निवास सूर्यमंडल के भीतर हैं।

माँ कुष्मांडा की पूजा विधि:
सर्वप्रथम स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें उसके बाद चौकी मे लाल वस्त्र एक कलश को स्थापित कर के फिर देवी कुष्मांडा को उस चौकी में स्थापित करें।तत्पश्चात् माता को चंदन-रोली सिंदूर से टिका करें फिर उन्हें सफेद रंग का चमैली का पुष्प चढ़ाएं तथा मालपुआ का भोग लगाएं।और आखिरी में दीप,धूप, कपूर से आरती करें। ऐसा करने से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। 

माँ कुष्मांडा के मूल मंत्र:-
सुरासम्पूर्ण कलश रुधिराप्लुतमेव च। 
दधाना हास्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे।। 

माँ कुष्मांडा  के बीज मंत्र:-
ऐ ह्री देव्यै नम:।

माँ कुष्मांडा के स्तुति मंत्र:-
या देवी सर्वभूतेषु कुष्मांडा रुपेण संस्तिता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। 

वन्दे वाञ्छित कामार्थ चन्द्रार्धकृतशेखराम। 
सिंहरुढ़ा अष्टभुजा कुष्मांडा यशस्विनीम्।। 

माँ कुष्मांडा की आरती:-
कुष्मांडा जय जग सुखदानी। 
मुझे पर दया कारों महारानी।। 

पिङ्गला ज्वालामुखी निराली। 
शाकम्बरी माँ भोली भाली।। 

लाखों नाम निराले तेरे। 
भक्त कई मतवाले तेरे।। 

भीमा पर्वत पर है डेरा। 
स्वीकारों प्रमाण ये मेरा।। 

सबकी सुनती हो जगदम्बे। 
सुख पहुंचाती हो माँ अम्बे।। 

माँ के मन में ममता भारी। 
क्यों ना सुनेगी अरज हमारी।। 

तेरे दर पर किया है डेरा। 
दूर करों माँ संकट मेरा।। 

मेरे कारज पूरे कर दो। 
मेरे तुम भंडारे भर दो।। 

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पंचवां दिन माँ स्कंदमाता की पूजा:
नवरात्र के पाँचवे दिन माँ दुर्गा का पाँचवे स्वरूप माँ देवी स्कंदमाता की पूजा अर्चना की जाती।इस देवी को स्कंदमाता इसलिए कहा जाता है क्योंकि कार्तिकेय स्कंद बालरूप में इनकी गोद में विराजमान हैं।इस देवी की चार भुजाएं है। ये दाई तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए है तथा बाई ओर वाली भुजा में कमल पुष्प सुशोभित हैं। स्कंदमाता कमल पुष्प के आसन पर विराजमान रहती हैं और इसलिए इन्हें बपद्मासना भी कहा जाता हैं ओर इनका वाहन सिंह है। 

स्कंदमाता की कथा:
स्कंदमाता ही हिमालय की पुत्री पार्वती है।जिन्हें महेश्वरी और गोरी के नाम से जाना जाता है।पौराणिक कथा के अनुसार कहा जाता है कि जब पृथ्वी पर असुरों का अत्याचार बढ़ गया था तब देवी स्कंदमाता ने अपने संत जनों की रक्षा के लिए सिंह पर स्वार होकर दुष्ट असुरों का संहार किया था। 

स्कंदमाता की पूजा विधि:
सर्वप्रथम स्नान करके स्वच्छ पीले रंग का वस्त्र धारण करें। क्योंकि देवी स्कंदमाता को पीले रंग अति प्रिय है उसके बाद  एक कलश को स्थापित कर के फिर देवी स्कंदमाता को उस चौकी में स्थापित करें।तत्पश्चात् माता को चंदन-रोली सिंदूर से टिका करें फिर उन्हें श्वेत रंग वस्त्र चढ़ाएं तथा पाँच प्रकार के भोग लगाएं।और आखिरी में दीप,धूप, कपूर से आरती करें ऐसा करने से भक्त आलोक तेज प्राप्त करते है इसके साथ ही माँ अपने सभी भक्तों के दुखों का निवारन करती हैं। 

स्कंदमाता की बीज मंत्र:-
ह्री क्लीं स्वमिन्यै नम:। 

स्तुति मंत्र:-
या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कन्दमाता रूपेण संस्थिता। नमस्तस्य नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

स्कंदमाता की आरती:-
स्कंदमाता की आरती। 
पंचवां नाम तुम्हारा आता। 
सबके मन की जानन हारी। 
जग जाननी सब की महातारी। 
तेरी ज्योत जलाता रहूँ मैं। 
हर दम तुम्हें ध्याता रहूँ मैं। 
कई नामों से तुझे पुकारा। 
मुझे एक है तेरा सहारा। 
कहीं पहाड़ पर है डेरा। 
कई शहरों में तेरा बसेरा। 
हर मंदिर में तेरा नजारे। 
गुण गाए तेरे भक्त प्यारे। 
भक्ति अपनी मुझे दिला दी। 

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छठा दिन माँ कात्यायनी की पूजा:
नवरात्र के छठे दिन माँ दुर्गा का छ्ठे स्वरूप माँ देवी कात्यायनी की पूजा अर्चना की जाती।एक समय कत नाम के प्रसिध्द ऋषि हुओ उनके पुत्र ऋषिकात्य हुओ उन्हीं के नाम से प्रसिध्द कात्यगोत्र से विश्व प्रसिध्द ऋषि कात्यायन उत्पन्न हुओ तत्पश्चात् देवताओं ऋषिओं के संकट को दूर करने के लिए महर्षि कात्यान के आश्रम में उत्पन्न होती है। और इसलिए इन्हें कात्यायनी कहा जाता हैं।मां कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है। इनकी चार भुजाएं है माँ के एक हाथ में कलम पुष्प है और बाकी हाथों में अस्त्र-सस्त्र से सुसोभित है। और इनका वाहन सिंह हैं। 

माँ कात्यायनी की कथा:
जब महिषासुर नामक राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था तब यह देख ब्रह्ममा,विष्णु,महेश ने अपने-अपने तेज और प्रताप के अंश दे कर देवी को उत्पन्न किया था तत्पश्चात् देवी कात्यायनी ने महिषासुर से सप्तमी, अष्टमी और नवमी तीन दिन तक युद्ध किया तथा दसवें दिन महिषासुर का वध कर के सभी देवताओं और ऋषिओं को अत्याचार से मुक्त किया। 

माँ कात्यायनी की पूजा विधि:
सर्वप्रथम स्नान करके स्वच्छ पीले रंग का वस्त्र धारण करें। क्योंकि देवी कात्यायनी को पीले रंग अति प्रिय है उसके बाद एक कलश को स्थापित कर के फिर देवी कात्यायनी को गंगा जल सेे स्नान कराएं करें इन्हें स्थापित करें तत्पश्चात् चंदन-रोली सिंदूर से टिका करें फिर उन्हें पीले रंग का वस्त्र चढ़ाएं तथा पाँच प्रकार के भोग लगाएं इन्हें शहद का भोग अवश्य चढ़ाएं और आखिरी में दीप,धूप, कपूर से आरती करें।ऐसा करने से विवाह में आ रही परेशानियां दूर हो जाती हैं।

माँ कात्यायनी का बीज मंत्र:-
ह्री क्लीं श्री त्रिनेत्रायै नम:। 

स्तुति मंत्र:-
या देवी सर्वभूतेषु माँ कात्यायनी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्य नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

माँ कात्यायनी की आरती:-
जय जय अम्बे जय कात्यायनी, 
जय जगमाता, जग की महारानी। 

बैजनाथ स्थाना तुम्हारा, 
वहां वरदाती नाम पुकारा। 

कई नाम हैं कई धाम है, 
यह स्थान भी तो सुखधाम है। 

हर मंदिर में जोत तुम्हारा, 
कहीं योगेश्वरी महिमा न्यारी। 

हर जगह उत्सव होते रहते, 
हर मंदिर में भक्त है कहते। 

कात्यायनी रक्षक काया की, 
ग्रंथि काटे मोह माया की। 

झूठे मोह से छुड़ाने वाली, 
अपना नाम जपाने वाली। 

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स्तुति मंत्र:-
या देवी सर्वभूतेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता। नमस्तस्य नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

माँ कालरात्रि की आरती:-
कालरात्रि जय-जय-महाकाली। 
काल के मुह से बचाने वाली।। 

दुष्ट संघारक नाम तुम्हारा। 
महाचंडी तेरा अवतार।। 

पृथ्वी और आकाश पे सारा। 
महाकाली है तेरा पसारा।। 

खडग खप्पर रखने वाली। 
दुष्टों का लहू चखने वाली।। 

कलकत्ता स्थान तुमाहारा। 
सब जगह देख तेरा नजारा।। 

सभी देवता सब नर-नारी। 
गावें स्तुति सभी तुम्हारी।। 

रक्तदेता और अन्नपूर्णा। 
कृपा करे तो कीई भी दुःख ना।। 

ना कोई चिंता रहे बीमारी। 
ना कोई गम ना संकट भारी।। 

उस पर कभी कष्ट ना आवें। 
महाकाली माँ जिसे बचाबे।। 

तू भी भक्त प्रेम से कहा। 
कालरात्रि माँ तेरी जय।। 


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