सोहराय हिंदी निबंध Essay on Sohraya in Hindi

सोहराय हिंदी निबंध Essay on Sohraya in Hindi 

सोहरा हिंदी निबंध Essay on Sohraya in Hindi

यदि सरहुल उराउँ नामक आदिवासियों का सबसे बड़ा त्योहार है तो सोहराय संथालों का सबसे बड़ा त्योहार हैं। यह त्योहार पूस मास में धान की फसल कट चुकने पर होता है। धान की जब नयी फसल कटती है, उसकी खुशहाली में ये सरल लोग अपने देवी-देवताओं को उसका अर्पण करना चाहते हैं। देवताओं, पितरों तथा गोधन का पूजार्चन बहुत भक्तिभाव से किया जाता है। आदिवासियों के सभी पर्व सामूहिक होते हैं, व्यक्तिगत नहीं। इस अवसर पर बाहर रहनेवाले लोग गाँव वापस आ जाते हैं। देवी-देवताओं के पूजन के पश्चात सगे-संबन्धियों का सत्कार और सम्मान करना ये लोग अपना धर्म समझते हैं। इस दिन ये लोग डटकर भोजन करते हैं तथा नाच-गान में पूरे उत्साह के साथ सम्मिलित होते हैं। माँदर की चोट पर उन्मुक्त होकर नाचनेवाले इन लोगों का उल्लास देखते ही बनता है। प्राकृत की गोद में पलनेवाले ये अभी नागरों- जैसे आडंबर से बहुत दूर हैं। इनकी सहजता और सरलता इनके त्योहारों में स्पष्टत: देखी जा सकती है। सोहराय के लिए सभी संथालों में एक तिथि निर्धारित नहीं होती। इसे हर गाँववाले अपनी सुविधा के अनुसार आयोजित करते हैं।यह त्योहार लगातार पाँच दिनों तक मनाया जाता है। 

प्रथम:- दिन संयम का दिन है। इस दिन ठीक से स्नान करने के बाद लोग गाँव के बड़े-बूढों और नायके (पुजारी) के साथ 'गोड-टांडी' (बथान,गोशाला) पर जमा होते हैं। वहाँ गोधन का आवाहन किया जाता है। 'गोरिय बोंगा' इन लोगों के पूज्य देवता हैं। उनकी स्तुति-प्रार्थना की जाती है तथा मुर्गे की बलि दी जाती है। उनसे निवेदन किया जाता है-"लो, हमारी सेवा स्वीकार करो। हम तुमाहारे प्रसाद पायेंगे। हमें सिर-दर्द, पेट-दर्द न हो! हमनें कोई कलह भी न हो।" उन्हें हँड़िया भी समर्पित की जाती है। वही 'माँझी' (मुखिया) द्वारा 'सोहराय' के लिए सबकी सम्मति प्राप्त कर ली जाती है और घोषणा की जाती है कि 'सोहराय'-भर गाँव के युवक और युवतियाँ 'जोग-माँझी' की देखरेख में स्वच्छन्द रूप से नाचेंगे, गायेंगे, बोलोंगे और मौज मनायेंगे। 

'सोहराय' के दूसरे दिन:-'गोहाल-पूजा होती है। गोहाल अर्थात गौओं के घर को साफ-सुथरा किया जाता है। उसे फूल-पत्तियों तथा रंगों से सजाया जाता है। गौओं के चरण पखारे जाते हैं। लोग उनके सींगों में तेल चुपड़ते हैं तथा उनमें सिंदूर लगाते हैं। अपनी-अपनी औकात के अनुसार, ये देवी-देवताओं तथा पितरों को मुर्गे या सूअर की बलि चढ़ते हैं। उन्हें हँड़िया भी अर्पित की जाती है। उस दिन परिवार की सभी बेटियाँ मायके लौट आती हैं। 

तीसरे दिन 'सुडांट' होता है:-सभी तबके के लोग अपने-अपने बैलों तथा भौंसाओं को धान की बालों तथा मालाओं से सजाकर खूँटते हैं। इसके बाद बाजे बजाकर, उन्हें भड़कते हुए घंटों नाचते-कूदते है। उसके बाद बैलों को गोहालों में पहुँचा दिया जाता है। फिर छ्ककर हँड़िया पि जाती है।

चौथे दिन 'जाले' होते है:-इस दिन युवक-युवतियों का समुदाय गृहस्थों के घर जाकर, उनके यहाँ नाच-गाकर चावल, दाल, मसाले इत्यादि एकत्र करता है। 

पाँचवें दिन:-'जोग-माँझी' की देखरेख में उन्हीं चीजों की खिचड़ी पकती है। फिर, एक सहभोज होता है। हँड़िया भी ढलती है। इसके पश्चात युवक-युवतियों को दी गयी स्वतंत्रता छिन जाती है। अब जोग-माँझी का उत्तरदायित्व समाप्त हो जाता है। इस प्रकार 'सोहराय' संथालों की मौज और मस्ती, जवानी और जश्न का त्योहार है। 

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