सूरदास के पद भ्रमगीत Surdas Ke Pad bhramar geet
'भ्रमर गीत' के 'भ्रम' शब्द के सात अर्थ डॉ स्त्येन्द्र ने अपने ग्रन्थ 'भ्रमरगीत: एक अन्वेषण' में किया है। किंतु इन सात अर्थों में तीन अर्थ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-(i)भ्रम में पड़ा हुआ व्यक्ति (ii) पति या नायक और (iii) एक षटपदी छन्द।
'भ्रमर' का भ्रम में पड़ा अर्थ लेने पर इस अर्थ की संगति श्रीकृष्ण और उध्दव दोनों से बैठ जाती है। श्रीकृष्ण दूसरे को भ्रम में डालनेवाले भ्रमर थे और उध्दव स्वयं भ्रम में पड़े। हुए व्यक्ति थे। कृष्ण भक्त कवियों के अनुसार श्रीकृष्ण ब्रजांगनाओं के परम पति थे। ब्रज की सभी गोपियों के प्रिय अर्थात नायक थे। इस तरह 'भ्रमर' का पति या नायक अर्थ लेने पर श्रीकृष्ण से उसकी संगति बैठ जाती है। उसका प्रवेश काव्यशास्त्र क्षेत्र में भी हो गया। 'भ्रमर' नाम का एक छन्द भी है। 'भ्रमर' मात्रिक छन्द होता है। लेकिन श्रीकृष्ण भक्त कवियों ने जो भ्रमरगीत लिखे हैं, उसमें उन्होंने 'भ्रमर' छन्द का प्रयोग नहीं किया है किंतु 'भ्रमर' शब्द के प्रथम दो अर्थ, उनके भ्रमर गीतों के संदर्भव में संगत हैं। किंतु जिन भ्रमरगीत का प्रथम प्रणयन श्रीकृष्ण-भक्त-शिरोमणि महात्मा सूरदास ने किया, उसकी प्रेरणा-भूमि 'श्रीमद् भागवत' के दशम स्कन्ध की कथा है। श्रीकृष्ण ब्रज को त्याग कर मथुरा चले गए। वहाँ जाकर वे वहीं के होकर रह गए। उन्होंने वहाँ कंस-वध से लेकर अपने माता-पिता वासुदेव-देवकी का कारावास से उध्दार तक किया। राजा बन गये। कुब्जा नामक दासी की सेवा से प्रसन्न होकर उसे अपना लिया और अपने प्रेम की उसे अधिकारिणी भी बना लिया। श्रीकृष्ण ने ब्रज की सुधि-पूर्णत: विसार दी। यशोदा की गोद, नंद बाबा का दुलार, ग्वाल बाल सरीखे सखाओं का स्नेह भुला दिया। सबके कचोटनेवाली बात तो यह थी कि उन ब्रजवालाओं की सुरित भुला देना जिनके साथ उन्होंने रासलीला रचायी थी, जिनके चलते ब्रजवनिताओं ने कुल-लज्जा का भी परित्याग कर दिया था। ब्रज की इन गोपियों का हाल बुरा था। श्रीकृष्ण के विरह में वे दग्ध हो रही थी। श्रीकृष्ण की एक झलक पाने के लिए वे बेचैनी थी। अचानक कृष्ण को ब्रज और ब्रजवासियों की याद आ गयी। अत: उन्होंने उनकी सुधि लेने तथा उन्हें ढाँढ़स बाँधने के लिए अपने अंतरंग सखा उद्धव को ब्रज भेजा। ब्रज पहुँचकर उद्धव ने गोपियों को निर्गुण ब्रह्य का उपदेश देना शुरू किया। उद्धव के ब्रज आगमन से गोपियों अति प्रेसन्न हुई थी। कि उन्हें अपने प्रिय के संदेश के रूप से उनके सखा के मुख से प्रेम के दो मीठे बोल सुनने को मिलेंगे किंतु उनकी आशा के विपरीत उद्धव ज्ञान-गर्व से ऐंठे कर गोपियों की कुछ सुने बिना निर्गुण-ब्रह्य और योग-मार्ग की शिक्षा देने लगे। उन्होंने गोपियों से आग्रह किया वे श्रीकृष्ण को भुला दें। क्योंकि वे कोई शरीरी मानव नहीं है, वे तो साक्षात् परब्रह्यहैं और योग-साधना से ही प्राप्त हो सकते हैं। उद्धव-गोपी संवाद चल ही रहा था कि उसी बीच एक भ्रमर उड़ता हुआ आया और एक गोपी के गाँव पर बैठ गया। गोपियाँ उद्धव को छोड़कर भ्रमर को लक्ष्य करके श्रीकृष्ण की निष्ठुरता और उद्धव की योग-दीक्षा को कोसने लगीं। कृष्ण-भक्त कवियों ने भागवत के इसी प्रसंग से प्रेरणा ग्रहण करके अत्यंत सरस भ्रमर गीत लिखे। इन भ्रमर गीतों में सर्वश्रेष्ट भ्रमरगीत सूरदास के हैं। हिन्दी में भ्रमरगीतों की परम्परा के सूत्रपात का श्रेय भी सूरदास को है। हिन्दी के भ्रमरगीत के दूसरे श्रेष्ठ कवि नंददास है। अन्य कवियों के भ्रमरगीत औपचारिकता भर प्रतित होते हैं। इन दोनों कवियों की-सी तल्लीनता, भावमयता, आलंकारिकता, तन्मयता और रसमयता किसी अन्य में नहीं मिलती।गोपियों को भ्रमर के बहाने उद्धव और श्रीकृष्ण को सुनने का एक साथ अवसर मिल गया। भौंरा भी काला, कृष्ण भी काले, उन्हें मथुरा ले जानेवाले अक्रूर भी काले तथा उनका संदेश लेकर आनेवाले उद्धव भी काले। रस-लोभी भौंरा भी बेवफा, उनके साथ रासलीला रचनेवाले कृष्ण भी बेवफा और उनके मित्र उद्धव भी उसी तरह की निष्ठुरता के प्रतिक। तन भी काला, मन भी काला। भ्रमर से रूप-गुण की समता ने भ्रमरगीत के राचयिता कवियों को गोपियों के प्रेम-तरंगित हृदय की थाह लेने का अच्छा अवसर प्रदान कर दिया। इस प्रसंग गीत हैं।
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