चिर सजग आँखे उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना कविता का सारांश महादेवी वर्मा

चिर सजग आँखे उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना कविता का सारांश महादेवी वर्माl

चिर सजग आँखे उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना

चिर सजग आँखे उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना कविता का सारांश महादेवी वर्माl

कविता
जाग तुझको दूर जाना!

अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
या प्रलय के आंसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;

आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
जाग या विद्युत्-शिखाओं में निठुर तूफान बोले!

पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!

बांध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बन्धन सजीले?
पन्थ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?

विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर-गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले?

तू न अपनी छांह को अपने लिए कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!

वज्र का उर एक छोटे अश्रुकण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सुधा दो घूंट मदिरा मांग लाया?

सो गई आंधी मलय की वात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या नींद बनकर पास आया?

अमरता-सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
जाग तुझको दूर जाना!

कह न ठंडी सांस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;

हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
राख क्षणिक् पतंग की है अमर की निशानी!

है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियां बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!

कविता का सारांश—
प्रस्तुत कविता छायावादी कवयित्री महादेवी द्वारा रचित है।छायवाद के प्रधान आधार स्तम्भों में महादेवी ही एक मात्र ऐसी सर्जनात्तम प्रतिभा है जिन्होंने काव्य की गीत-विद्या के प्रति एकान्त निष्ठा प्रदर्शित की है। अतिशय रागात्मक अनुभुति अन्तदर्शन और आत्मानिष्ठुरता, काव्यत्मक वैयकक्ति भावना और संगीतात्मकता का यह कठोर आग्रह था कि कवयित्री को अनिवार्य रूप से यह विद्या अपनानी पड़ी, क्योंकि वे अपने अन्तर्वेग की तरलता, सकेतों की एकता, संकोच और कुंठ के उपस्थापन से खूब अच्छी तरह परिचित था और अच्छी तरह समझ रही थी कि दूसरी विद्या पर आश्रय लेने पर बिखर जायेगी। रागात्मक, खंडित आवेग एवं छंदित आवेश जो अपनी आवेश लेने पर बिखर जा सकती है। उनकी अपनी आत्मचेतना और अर्तव्यथा रही है। प्रणयात्मक वेदना की जो टीस रही है उसकी अभिव्यंजना गीतात्मक ही हो सकती है। 
प्रस्तुत छन्द कवयित्री की चैतन्यता की अभिव्यंजना है। कवयित्री स्वयं से कहती है कि मैं सजग होकर किसी सुदूर लक्ष्य की जाना चाह रही है। उसकी आकांक्षा प्रबल होकर समस्त विघ्नों को झेलने के लिए तत्पर है। हिमगिरि जैसे ऊथल पर्वत भले ही कांप उठे, परंतु मेरी आत्मा अलौकिक प्रियतम से मिलने के लिए आतुर हो चली है। मेरी आँखों से आँसुओं की धार बहकर प्रलय मचाने या आकाश रो उठे, परंतु उस महामिलन के लिए मैं आकांक्षी हूँ। तिमिर आलोक को पीने के लिए व्यग्र हो, या विधुत की शाखाओं में तूफान बोले परंतु मैं अपने पथ पर पदचिंहित छोड़कर जा रही हूँ। 
कवयित्री का संकल्प बोल रहा है अपने प्रियतम से मिलने के लिए, जो उसकी चैतन्यता से प्रेरित है। समस्त बाधाओं से सामना करने के लिए है। प्रकृति के उन घटनाओं या प्रक्रियाओं को प्रस्तुत करती है जो उसके मार्ग के बाधक हैं। 
प्रणयानुभूति के आवेग से उत्प्रेरित होकर कवयित्री जिस अलौकिक आनन्द का एहसास करती है, उसमें एक आकर्षण है, निश्चितन्तता है तथा जीवन की सम्पूर्ण की प्रचुरता है। इसलिए कवयित्री इस सुख अनुभूति से ओत-प्रोत होकर अपने ग्न्तव्य तक जाने के लिए कटिबध्द होती है, परंतु विघ्नों-बाधाओं से भी परिचित होती हैं। विध्न-बाधाओं से आत्माशक्ति का विकास होता है। कवयित्री अपने कर्मों के लिए अश्वस्त हो जाती है और हृदय की संवेगात्मक अनुभूति की अभीव्यक्ति भी करती है। 
प्रकृति के समस्त सुंदर एवं कुरुप अवस्थाओं को प्रस्तुत करती हुई यह दर्शाना चाहती हैं कि अलौकिक प्रियतम से मिलना और उसके लिए आत्मा-समर्पित होना एक आनन्द की उत्प्रेरक अनुभूति है। प्रिया और प्रिये के मिलन में एक सृष्टि की सम्भावना देखी जाती है। जहाँ रचना का प्रश्न उठता हो वहाँ एकरात्मक विचारों की ही पुष्टि होती देखी जाती है। कवयित्री की यह अनुभूति संरचनात्मक है और जीवन के सुखद एहसासों के लिए यह एक मर्म भी है। ऐसे मार्ग की कल्पना करती हुई कवयित्री सुखद यात्रा के एहसास से प्रफुल्ल हो उठती है। पाठकों को यह स्पष्ट करना चाहती हूँ कि दुःख चेतना के द्वार के लिए मार्गदर्शक बन जाता है। सुख की अनुभूति दुःख के पश्चात् ही होती है। हिमगिरी, विधुत कील पठ, तेज तूफान और मार्ग के काँटेदार तृण-दल उसके ग्न्तव्य तक के लिए कहीं से बाधक सिद्ध नहीं होंगे। यह छन्द प्रणयानुभूति से उत्प्रेरत है। 

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