गीत-फरोश हिन्दी कविता का सारांश भवानी प्रसाद मिश्र

गीत-फरोश हिन्दी कविता का सारांश भवानी प्रसाद मिश्र

गीत-फरोश हिन्दी कविता का सारांश भवानी प्रसाद मिश्र

गीत-फरोश हिन्दी कविता का सारांश भवानी प्रसाद मिश्र

*कविता*

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ।

जी, माल देखिए दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं है, काम बताऊंगा;
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने;
यह गीत, सख़्त सरदर्द भुलायेगा;
यह गीत पिया को पास बुलायेगा।
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझ को
पर पीछे-पीछे अक़्ल जगी मुझ को;
जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान।
जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान।
मैं सोच-समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ;
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।

यह गीत सुबह का है, गा कर देखें,
यह गीत ग़ज़ब का है, ढा कर देखे;
यह गीत ज़रा सूने में लिखा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिखा था।
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है
यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है
यह गीत भूख और प्यास भगाता है
जी, यह मसान में भूख जगाता है;
यह गीत भुवाली की है हवा हुज़ूर
यह गीत तपेदिक की है दवा हुज़ूर।
मैं सीधे-साधे और अटपटे
गीत बेचता हूँ;
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।

जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ;
जी, छंद और बे-छंद पसंद करें –
जी, अमर गीत और वे जो तुरत मरें।
ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,
मैं पास रखे हूँ क़लम और दावात
इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ ?
इन दिनों की दुहरा है कवि-धंधा,
हैं दोनों चीज़े व्यस्त, कलम, कंधा।
कुछ घंटे लिखने के, कुछ फेरी के
जी, दाम नहीं लूँगा इस देरी के।
मैं नये पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ।
जी हाँ, हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ।

जी गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ;
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ;
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का।
कुछ और डिजायन भी हैं, ये इल्मी –
यह लीजे चलती चीज़ नयी, फ़िल्मी।
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,
यह दुकान से घर जाने का गीत,
जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात।
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी रूठ-रुठ कर मन जाते है गीत।
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ
गाहक की मर्ज़ी – अच्छा, जाता हूँ।
मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ –
या भीतर जा कर पूछ आइये, आप।
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप
क्या करूँ मगर लाचार हार कर
गीत बेचता हँ।
जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ।

गीत-फरोश हिन्दी कविता का सारांश भवानी प्रसाद मिश्र

प्रस्तुत कविता आज के कवियों की रचना-धर्मिता पर व्यंग्य करती है। कवि ने आज के कवियों को व्यापारी की तरह देख रहा है। प्राचीन युग के कविगण साधक हुआ करते थे, संत हुआ करते थे तथा त्यागत हुआ करते थे उनकी कवितायें लोक-मंगल की भावनाओं से रची जाती थी। उनका कोई स्वार्थ नहीं जुटा रहता था। इसीलिए तुलसीदास, कालिदास, विद्यापति जैसे कवियों ने समाज को दिशा प्रदान की, मानव के हित में कार्य किया और राष्ट्र की, संस्कृति की रक्षा की। अपनी रचनाओं को कभी बेचा नहीं। परंतु आज के कवियों ने व्यापारियों के कार्य को अपनाकर गीतों को बेचना शुरू कर दिया है, फलस्वरूप उनके गीतों के भाव भी सस्ते दर से लगाये जाते हैं और उनका कवि व्यक्तित्व भी हास्यप्रद बन जाता है। आज के कविगण धन-अर्जन की दिशा में कवि धर्म को अपनाकर चल रहे हैं। 

कवि अपना कविता में कहता है कि मैं गीत बेचता हूँ। मेरे गीतों के प्रकार अनेक हैं। मेरे गीतों को पहले देख लीजिय तब उसकी कीमत लगाये। मैंने कुछ गीत मस्ती में लिखा है, कुछ पस्ती में भी। इसीलिए ये गीत मदद सरदर्द को दूर करेगा। मेरा गीत दूर बसा तेरे प्रिय को बुलायेगा। यह सुनकर आप लोग हैरान हो सकते हैं, अब मैं सोच समझकर गीत लिखा है। अब मैं गीत बेचता हूँ। कवि व्यापारी की तरह चिल्ला-चिल्लाकर कहता है यह गीत सीधे-सीधे होते हैं। कवि गीत दिखलाता है और कहता है कि आप यदि सुनना चाहें तो सुन भी सकते हैं।छनदयुक्त या वे छन्द पसंद करें। यह गीत उनलोगों के लिए हैं जो शीघ्र मरना चाहता है, अर्थात् अमरता प्रदान करने योग्य हैं। मेरे पास कलम और दावात भी हैं-यदि आपको इनमें से नहीं पसंद आये तो मैं तुरंत नयी कविता लिख डालूँ। आप जैसा भी पसंद करें वैसे गीत तैयार हो जायेंगे। इन दिनों कवियों ने दुहरा धन्धा अपना लिया है। मेरे दोनों धर्म की व्यस्तता बढ़ गई है। कमल और कन्धा। कुछ घण्टे लिखता हूँ कुछ फेरि का कार्य में समय देता हूँ। कवि कहता है कि वह नये पुराने सभी प्रकार के गीत बेचता है। मैं जनम, मरण, जीत, शरण आदि के गीतों को लिखता हूँ। नये डिजायनों के गीत में लिखता हूँ। मेरे गीत नयी फिल्मों में भी चलती हैं। यह गीत दूकान से घर जाने का गीत है। कवि ने गीतकारों की बेवसी और उनके रास्ते रूप की व्यंजना करते हुए अति हास्यप्रद स्थिति में कवियों को व्यस्त करता है। आज के कवि अपनी रोटी के लिए गीतों का सौदा करते हैं। जिसे जैसे गीत की आवश्यकता होती है वैसा गीत उन्हें पैसे के बल पर मिल जाता है। गीत भी अमरता और शाश्वत होता है। परंतु आज का कवि पुराने आदर्श में हटकर अर्थयुग के अनुकूल फेरीवाला बन गया है। 

अन्य कविता का सारांश पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर किल्क करें👇

Post a Comment

Previous Post Next Post

Offered

Offered