पानी से घिरे लोग कविता का सारांश केदारनाथ सिंह Paani Me Ghire Hue Log Kavita ka Saransh Kedarnath Singh
कविता
पानी में घिरे हुए लोग
प्रार्थना नहीं करतेवे पूरे विश्वास से देखते हैं पानी को
और एक दिन
बिना किसी सूचना के
खच्चर बैल या भैंस की पीठ पर
घर-असबाब लादकर
चल देते हैं कहीं और
यह कितना अद्भुत है
कि बाढ़ चाहे जितनी भयानक हो
उन्हें पानी में थोड़ी-सी जगह ज़रूर मिल जाती है
थोड़ी-सी धूप
थोड़ा-सा आसमान
फिर वे गाड़ देते हैं खम्भे
तान देते हैं बोरे
उलझा देते हैं मूंज की रस्सियां और टाट
पानी में घिरे हुए लोग
अपने साथ ले आते हैं पुआल की गंध
वे ले आते हैं आम की गुठलियां
खाली टिन
भुने हुए चने
वे ले आते हैं चिलम और आग
फिर बह जाते हैं उनके मवेशी
उनकी पूजा की घंटी बह जाती है
बह जाती है महावीर जी की आदमकद मूर्ति
घरों की कच्ची दीवारें
दीवारों पर बने हुए हाथी-घोड़े
फूल-पत्ते
पाट-पटोरे
सब बह जाते हैं
मगर पानी में घिरे हुए लोग
शिकायत नहीं करते
वे हर कीमत पर अपनी चिलम के छेद में
कहीं न कहीं बचा रखते हैं
थोड़ी-सी आग
फिर डूब जाता है सूरज
कहीं से आती हैं
पानी पर तैरती हुई
लोगों के बोलने की तेज आवाजें
कहीं से उठता है धुआं
पेड़ों पर मंडराता हुआ
और पानी में घिरे हुए लोग
हो जाते हैं बेचैन
वे जला देते हैं
एक टुटही लालटेन
टांग देते हैं किसी ऊंचे बांस पर
ताकि उनके होने की खबर
पानी के पार तक पहुंचती रहे
फिर उस मद्धिम रोशनी में
पानी की आंखों में
आंखें डाले हुए
वे रात-भर खड़े रहते हैं
पानी के सामने
पानी की तरफ
पानी के खिलाफ
सिर्फ उनके अंदर
अरार की तरह
हर बार कुछ टूटता है
हर बार पानी में कुछ गिरता है
छपाक........छपाक.......
पानी से घिरे लोग कविता का सारांश केदारनाथ सिंह
'पानी से घिरे लोग' शीर्षक कविता व्यक्ति की जिजिविषा शक्ति की व्यंजना की है। बाढ़ के दिनों जब पानी से लोग घिर जाते हैं तब वे लोग ईश्वर की प्रार्थना नहीं करते अपितु अपनी और अस्तित्व के लिए कर्म करते हैं। उससे सामाना करने के लिए कर्म करते हैं। उससे सामाना करने के लिए एक विश्वास से चुनौतीपूर्ण भावों से देखते हैं। फिर कभी किसी को सूचित किये बिना भैंस और खच्चर पर अपने सामानों को लादे हुए उस जगह की तलाश में निकल पड़ते है जो सुखी है, जल की एक बूंद भी वहाँ जमी हुई नहीं है। यह आश्चर्य की बात है और भयानक भी जब वे सुखी जमीन को ढूँढ़ लेते हैं। वहाँ थोड़ा धूप मिल जाती है और थोड़ा खुला आसमान। फिर वे खम्भे गाड़ देते हैं और तम्बू तान देते हैं। मूँज की रस्सियों से ठाठ बनाते हैं, साथ लायी पुआलों की गंध सर्वत्र सुवासित होती है। उसके पास आम की गुठली और खाली टीन होता है। चने खाते हैं और चिलम पर आग रखकर मुक्त मन का स्वाद लेतें हैं। पानी में उनके मवेशी बह जाते हैं और ईश्वर का दरवाजा खटखटाने लगते हैं। पानी में उनके मवेशी वह जाते हैं और ईश्वर का दरवाजा खटखटाने लगते हैं। महावीर की आदमकद मूर्ति भी बह जाती है।
कवि ने समाज के ऐसे सर्वहारा वर्ग की चुनौतिपूर्ण आंतरिक क्षमता की व्यंजना करता है जो विषम समाज का प्रमाण है। कवि ने पाठकों का ध्यान इस वर्ग के संघर्षपूर्ण जीवन की ओर आकृष्ट किया है।
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Poem