थके हुए कलाकार से' कविता का सारांश धर्मवीर भारती Thake Hue kalakar se' Kavita ka Saransh Dharm Veer Bharti
कविता
सृजन की थकन भूल जा देवता!
अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,अभी तो पलक में नहीं खिल सकी
नवल कल्पना की मधुर चाँदनी
अभी अधखिली ज्योत्सना की कली
नहीं ज़िन्दगी की सुरभि में सनी
अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,
अधूरी धरा पर नहीं है कहीं
अभी स्वर्ग की नींव का भी पता!
सृजन की थकन भूल जा देवता!
रुका तू गया रुक जगत का सृजन
तिमिरमय नयन में डगर भूल कर
कहीं खो गई रोशनी की किरन
घने बादलों में कहीं सो गया
नयी सृष्टि का सप्तरंगी सपन
रुका तू गया रुक जगत का सृजन
अधूरे सृजन से निराशा भला
किसलिए जब अधूरी स्वयं पूर्णता
सृजन की थकन भूल जा देवता!
प्रलय से निराशा तुझे हो गई
सिसकती हुई साँस की जालियों में
सबल प्राण की अर्चना खो गई
थके बाहुओं में अधूरी प्रलय
और अधूरी सृजन योजना खो गई
प्रलय से निराशा तुझे हो गई
इसी ध्वंस में मूर्च्छिता हो कहीं
पड़ी हो, नयी ज़िन्दगी; क्या पता?
सृजन की थकन भूल जा देवता
थके हुए कलाकार से' कविता का सारांश धर्मवीर भारती
कवि 'थके हुए कलाकार से' से अपने प्रगतिवादी संदेश देता है कि अभी तो धरती यानी कविता या जिन्दगी अधबनी यानी अधूरी है इसलिए कलाकार सृजन की थकान को भूल जाए। अभी नयी कल्पना की मधुर चाँदनी पलक में नहीं खिल सकी है अभी उसकी ज्योत्साना की कली अधखुली है अभी जिंदगी की सुरभि में कविता सती नहीं हो सकी है अभी तो धरती अधबनी हो पड़ा है अधूरी है। जिस पर स्वर्ग की नींव का कोई पता नहीं है इसलिए कलाकार, सृजन की थकान को भूल जाए। यदि वह रुक जाता है तब सम्पूर्ण जगत का सृजन रुक जाये या फिर रौशनी की किरण अंधकार के नेत्रों में अपनी डगर भूल जायेगी और वह बादलों में कहीं सो जायेगी। नयी जिंदगी का सृजन होने पर ही तो नई सृष्टि के सप्तरंगी सपने पूरे हो सकते हैं अन्यथा उसके रुक जाने पर जगत का सृजन हो रुक जायेगा। अधरे सृजन से भला निराशा क्यों जबकि अधूरी स्वयं में पूर्णता लिये हुई है। प्रलय से वह निराशा हो गया है, सबल को अर्चना प्राण उसकी सिसकती जालियों में खो गयी है। क्या पता नयी जिंदगी कहीं पड़ी हो। इसीलिए वह प्रलय में निराशा हुए बिना सृजन की थकान को भूल जाए ऐसी कवि की कामना है।
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Poem