श्रमदान पर निबंध-श्रमदान का महत्व पर निबंध Essay On Shrqmdaan In Hindi
प्रस्तावना
मानव के अन्त:करण की शुध्दि करने के लिए शास्त्रों में अनेक मार्ग बताए गए हैं अन्त:करण की शुध्दि से मानव के हृदय में परोपकार, औदार्य, दया उज्जवल भावनाओं का उदय स्वत: होता है। ये भावनाएँ ही मनुष्य को देवत्व और शुभ्रता को ओर ले जाती हैं। मनुष्य स्वार्थ की संकुचित सीमा का अतिकमण करने परमार्थ की ओर अग्रसर होता है। अन्त:करण की विशुध्दता के लिए जहाँ और अनेक सात्विक मार्ग हैं, वहाँ श्रमदान भी एक श्रेष्ठ मार्ग है। इससे हमारा शारीरिक और मानसिक विकास होता है। हमारे हृदय में विश्व-बन्धुत्व की भावना की वृध्दि होती है। हमें ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है।
श्रमदान का अर्थ
श्रमदान भारतवर्ष की अन्य प्राचीन परम्पराओं में से एक है। प्राचीन भारत में इसका अपना एक अलग ही महत्व था। जनता सच्चे हृदय से एक दूसरे के कामों में हाथ बटाती थी, परस्पर सहानुभूति, सहयोग और संवेदना थी। श्रमदान का अर्थ है स्वार्थ-रहित होकर जन-कल्याण के कार्यों में अपनी अर्जित शक्तियों द्वारा पूर्णरूप से सहयोग देना। श्रमदान में राष्ट-हित की भावना के साथ-साथ सामाजिक और अखिल विश्व की कल्याणकारी भावनाओं का समन्वय भी रहता है। श्रमदान से किसी राष्ट्र की आर्थिक स्थित के सुधार के साथ-साथ राष्ट्र को पूर्ण शक्तिशाली बनाने में अमूल्य सहायता प्राप्त होती हैं।
श्रमदान का उद्देश्य एवं श्रीगणेश
इस आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य जनता में नि:स्वार्थ भाव से रचनात्मक कार्यों के प्रति रुचि उत्पन्न करना तथा परस्पर सहयोग की भावना की वृध्दि करना है। अब तक भारत के ग्रामों की दशा बड़ी ही दयनीय थी। इसलिए भारत सरकार ने अपनी प्रथम पंचवर्षीय योजना में ग्राम-सुधार योजना को विशेष महत्व दिया था। आधुनिक काल में श्रमदान का निकटतम सम्बन्ध ग्राम-सुधार योजनाओं से ही है। ग्राम-सुधार योजनाओं को सफलता प्रदान करना ही श्रमदान का प्रमुख लक्ष्य है। ग्राम-सुधार योजना में गाँवों की उन्नति के लिए जितने भी आवश्यक उपकरण हो सकते है, जैसे—सिंचाई के लिए नालियाँ बनाना, कुएँ खोदना, प्रकाश का प्रबन्ध करना, स्वच्छता का प्रबन्ध, वृक्षारोपण करना, आदि किए जा रहे हैं। इन्हीं बहुमुखी योजनाओं से भारत की आर्थिक दशा में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है और हो रहा है। भविष्य में इन्हीं योजनाओं की सफलता एवं असफलता पर भारत की उन्नति और अवनति आधारित है। इसी देशहित को दृष्टि में रखते हुए भारत में श्रमदान का श्रीगणेश 23 जनवरी, 1653 को हुआ। इस तिथि से समस्त भारतवर्ष में श्रमदान सप्ताह मानाया जाने लगा। भू-दान यज्ञ की भाँति श्रमदान-आंदोलन भी आचार्य विनोबा-भावे के मस्तिक की उपज हैं।
श्रमदान के कार्य में रुकावटें
विगत अनेक वर्षों से श्रमदान का पुण्य कार्य भारतवर्ष में चल रहा है। इसके द्वारा अनेक सार्वजनिक कार्यों अभूतपूर्व सफलता मिली। हमारी सरकार भी इस दिशा में विशेष रुचि ले रही है। श्रमदान सप्ताह आरम्भ होते ही इसमें सभी सरकारी अधिकारी, अध्यापक, विधार्थी, किसान, मजदूर प्रसन्नता से भाग लेते थे। विधार्थीयों ने इस दिशा में सराहनीय कार्य किया। छोटे-छोटे भवनों के निर्माण के साथ-साथ अनेक बाग बगीचे, कॉलेज, चारदीवारी और सड़कों के निर्माण में छात्रों ने बड़ी कुशलता का परिचय दिया। ग्राम सुधार योजना से सम्बन्धित अनेक विभाग, जैसे—ग्राम पंचायतें, कृषि विभाग, जन-कल्याण विभाग, प्रांतीय रक्षक दल, आदि ने इस आंदोलन में विशेष सहयोग देकर बहुत से कार्य सम्पन्न कराए। सार्वजनिक संस्थाओं ने भी इस दिशा में विशेष सहयोग दिया। सड़कों और नालियों के बनाने में भारत सेवक समाज ने पर्याप्त सहायता दी।
देश की स्मृध्दि का प्रत्येक कार्य तभी सफल हो सकता है, जब शासक और शासित में पारस्परिक सहयोग हो। हमारे देश में राष्ट्रीय योजनाओं को कार्यन्वित करने में शासन को शासितों अर्थात जनता का पूर्ण सहयोग प्राप्त नहीं होता। जनता समझती है कि यह कार्य केवल सरकार का ही है तथा हम तो इसके उपभोग के लिए ही हैं। इसका मूल कारण यह है कि भारतीय जनता इस प्रकार की योजनाओं का अपनी अशिक्षा और अज्ञानता के कारण वास्ताविक मुल्यांकन करने में असमर्थ है। दूसरा कारण एक यह है कि देश की निर्धनता, अन्न-वस्त्र की चिंता किसी को इतना अवसर ही नहीं देती कि वह इस प्रकार राष्ट्रीय हित के कार्यों में पूर्ण सहयोग दे सके। सुबह का अपने घर से निकला हुआ मजदूर, अध्यापक, वकील दिन भर घोर परिश्रम करने के बाद थकामॉदा जब सँध्या के बाद घर लौटता है, तब उसके पास न श्रमदान की शक्ति रहती है और न देश हित के अन्य कार्य के लिए समय। उस समय तो उसे केवल भोजन करके विश्राम की चिन्ता पड़ती है, जिससे दूसरे दिन कार्य करने के लिए वह यथासम्भव शक्ति अर्जित करता है। तीसरे यह योजना भी स्वयं में इतनी आकर्षक नहीं है कि वह सर्व-साधारण को अपनी ओर आकृषित कर सके। जो भी लोग श्रमदान करते थे वे मन से नहीं करते, केवल दिखावे के लिए और खाना-पूरी करने के लिए ही करते थे।फोटो खिंचवाने के लिए बड़े-बड़े अधिकारी भी फावड़ा और डलिया हाथ में पकड़ लेते हैं, परंतु जैसे ही हुआ, तुरंत साबुन से हाथ धोकर फिर पैंट की जेब में हाथ डाल लेते थे।
उपसंहार
भारतीय शिक्षित जनता भी श्रमदान के वास्ताविक महत्व की और अधिक ध्यान नहीं देती, वह इसे केवल एक मानोरंजन का साधन-मात्र समझती है। जो लोग गाँवों में श्रमदान के लिए नियुक्त किये जाते थे, वे विशेष रुचि से कार्य नहीं करते। इसलिए गाँव के निवास भी उनके कामों में पूर्ण सहयोग नहीं देते। मुझे अब तक याद है कि एक गाँव में कुछ अध्यापक और विद्यार्थी श्रमदान का कार्य करने गये थे। सारे गाँव में घूमने पर भी कुदाली और फावड़े न मिले, जबकि ग्राम-प्रधान को पहले से सूचना थी कि अमुक दिन इस गाँव में श्रमदान का कार्य होगा। आश्चर्य यह है कि ग्राम-प्रधान महादेव भी गाँव में नहीं थे, किसी रिश्तेदारी में गए हुए थे। गाँव के छोटे-छोटे किसानों के पास कहाँ इतना समय है और कहाँ इतने फालतू यंत्र कि वे अपने दो-चार काम छोड़ें और अपने यंत्र हमें दें। परंतु कुछ स्थान ऐसे भी थे, जहाँ श्रमदान कार्य बड़ी ईमानदारी और गम्भीरता से हुआ।
देश की आर्थिक अवस्था सुधार कर जनता को सुखी एवं सम्पन्न बनाने के लिए यह आवश्यक है कि श्रमदान के महत्वपूर्ण आंदोलन को हम पुन: जीवित करें तथा उस में हम तन, मन, धन से पूर्ण सहयोग दें। इससे केवल यही लाभ न होगा कि हम अपनी योजनाओं को सफल बना सकेंगे, अपितु हमारे हृदय में परोपकार, त्याग उदाहरण और दया आदि उज्जवल भावनाओं का उदय होगा। हमारा नैतिक स्तर उन्नत होगा और हम स्वार्थ की पाशविक भावनाओं से ऊपर आकर मनुष्यत्व की ओर अग्रसर होंगे और हमनें भ्रातृत्व की भावना जागृत होगी।
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