नाच कविता का सारांश सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
कविता
एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।
जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
वह दो खम्भों के बीच है।
रस्सी पर मैं जो नाचता हूँ
वह एक खम्भे से दूसरे खम्भे तक का नाच है।
दो खम्भों के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
उस पर तीखी रोशनी पड़ती है
जिस में लोग मेरा नाच देखते हैं।
न मुझे देखते हैं जो नाचता है
न रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ
न खम्भों को जिस पर रस्सी तनी है
न रोशनी को ही जिस में नाच दीखता है:
लोग सिर्फ़ नाच देखते हैं।
पर मैं जो नाचता
जो जिन खम्भों के बीच है
जिस पर जो रोशनी पड़ती है
उस रोशनी में उन खम्भों के बीच उस रस्सी पर
असल में मैं नाचता नहीं हूँ।
मैं केवल उस खम्भे से इस खम्भे तक दौड़ता हूँ
कि इस या उस खम्भे से रस्सी खोल दूँ
कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाये -
पर तनाव ढीलता नहीं
और मैं इस खम्भे से उस खम्भे तक दौड़ता हूँ
पर तनाव वैसा ही बना रहता है
सब कुछ वैसा ही बना रहता है।
और वही मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं
मुझे नहीं
रस्सी को नहीं
खम्भे नहीं
रोशनी नहीं
तनाव भी नहीं
देखते हैं - नाच !
नाच कविता का सारांश सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
प्रयोगवादी काव्यकार 'अज्ञेय' ने प्रस्तुत कविता में रस्सी, खम्भ, रोशनी तथा नाच क्रमश: तनाव, जन्म-मृत्यु, चेतना, तथा कर्म के प्रतीकों को प्रस्तुत किया है। कवि ने मानव-जीवन की कर्मशीलता का एक दर्शन प्रस्तुत करते हुये उसे पूर्ण जीवन का खाका खींचा है।
कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के अस्तित्व के लिए व्यस्त रहता है। जीवन सुख आर संतुष्टि से केसे परिपूर्ण हो इसके लिए वह तनावग्रस्त रहता है। तनावभरा जीवन का तमाशा सभी लोग देखते है जिससे लोग अवगत हो सके कर्मशील पुरुष अपनी भौतिक स्मृद्धि तथा सामाजिक अस्तित्व के लिए तनावग्रस्त होकर कर्मों को करता है, परंतु मन की शांति और सुख उससे दूर चले जाते हैं। सुख की कल्पना जिन उपलब्धियों में वह करता है वहाँ सचमुच में सुख है कहाँ। इसलिए उसका तनाव जीवनपर्यन्त बना रहता है। जन्म उसका प्रथम खम्भा है तो मृत्यु उसका दूसरा खम्भा। दोनों खम्भों के अंतराल में एक तनाव है। दोनों के बीच तनाव है उस पर सवार होकर वह नाचता रहते है। और वह नाचता रहता है। यह तमाशा उसकी मृत्यु की अवस्था तक आकर समाप्त हो जाता हैं।
कवि ने आम व्यक्तियों के जीवन का स्वरूप दो खम्भों और उससे आबध्द रस्सी के तनाव से गढ़कर एक बिम्ब प्रस्तुत करता है। 'नाच' शब्द उस कर्म का प्रतीक है जिसका कहीं विराम नहीं। वह जीवनपर्यन्त नाचता है। नचाने की गीत-सीमा कही नहीं है। उसका उद्देश्य भी दृष्टिगोचर नहीं होता है। किसी वृत की परिधि का कोई छोर है और न अंत।
इस कविता में आम व्यक्तियों की सांसारिक परिसीमा भौतिक तक ही सीमित है। यह एक भ्रम है। नाचना स्वयं एक भ्रम है अर्थात् वह भवँर है जहाँ व्यक्ति नाचते-नाचते अपने जीवन को उसी में डुबा देता है। जीवन का अंत हो जाता है यह दर्शन व्यक्ति-विशेष पर नहीं ठहराया जा सकता। यह सम्पूर्ण समाज पर अंकित होता हैं।
कवि कहता है कि किसी व्यक्ति के जीवन की यह सच्चाई है। संसार के रंगमंच पर एक भ्रमणात्मक जीवन जीकर उसे मृगतृष्णा ही प्राप्त होती है। तृष्णा जीवन के वास्ताविक उद्देश्य से उसे अछूत रखती है। सामाजिक चेतना एक रोशनी बनकर उसे वह राह दिखाती है जो झूठे है। जीवन की आबध्दता इस झुठाई से रहती है कवि की दृष्टि में यह संसार झूठा है। आखिर सत्य क्या है? कवि के समझ एक प्रश्न खड़ा होता है। जीवन का अभिप्राय क्या है? क्या तृष्णा से बंधकर पूरे जीवन नाचते रहना या तृष्णा से परे एक अनासक्त जीवन जीना। संसार की सारी स्वरूपता सत्य से परे है। फिर भी यह समाज इससे विलग है। व्यक्ति को नाचना नहीं है अपितु उसे चलना है। एक लक्ष्य तक चलकर अपने कर्म का मापदंड प्रस्तुत करना है। जहाँ मानसिक विकास महा-मानव का स्वरूप ग्रहण कर ले। मनुष्य पशुता की वृत्ति या एक समझ अपनाकर जब चलने लगता है तब वह नाचता है। उद्देश्य या उसका लक्ष्य कहीं नहीं मिल पाता। अन्तहीन सफर का अन्त मृत्यु में समाहित हो जाता है।
कवि ने प्रतिक और बिम्ब से कविता की बुनाहट अत्यन्त सफल दंग से करता है। प्रयोगवादी कवि होने के कारण उन्होंने खम्भा, रस्सी नाच और रोशनी के प्रतीकों के माध्यम से जीवन का एक बिम्ब खिंचा है। इस कविता में एक सत्य उभरकर पाठक के समक्ष खड़ा हो जाता है। जो एक दर्शन है। यह दर्शन जीवन का कटु सत्य है। कवि का असंतोष जीवन के ऐसे स्वरूप में देखा जा सकता है। कविता का यही मान है।
अन्य कविता का सारांश पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर किल्क करें👇
Tags:
Poem