'तुम गा दो' हरिवंश राय बच्चन की हिंदी कविता Tum ga do by Harivansh Rai Bachchan
तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!
मेरे वर्ण-वर्ण विश्रृंखल,
चरण-चरण भरमाए,
गूँज-गूँजकर मिटने वाले
मैंने गीत बनाए;
कूक हो गई हूक गगन की
कोकिल के कंठों पर,
तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!
जब-जब जग ने कर फैलाए,
मैंने कोष लुटाया,
रंक हुआ मैं निज निधि खोकर
जगती ने क्या पाया!
भेंट न जिसमें मैं कुछ खोऊँ
पर तुम सब कुछ पाओ,
तुम ले लो, मेरा दान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!
सुंदर और असुंदर जग में
मैंने क्या न सराहा,
इतनी ममतामय दुनिया में
मैं केवल अनचाहा;
देखूँ अब किसकी रुकती है
आ मुझपर अभिलाषा,
तुम रख लो, मेरा मान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!
दुख से जिवन बीता फिर भी
शेष अभी कुछ रहता,
जीवन की अंतिम घड़ियों में
भी तुमसे यह कहता,
सुख की एक साँस पर होता
है अमरत्व निछावर,
तुम छू दो, मेरा प्राण अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!
'तुम गा दो' शीर्षक कविता का भावर्थ-
कवि हरिवंश राय 'बच्चन' ने 'तुम गा दो' शीर्षक कविता में अपनी निजी वेदना को अभिव्यक्ति प्रदान ही है। इस संसार के लिए उन्होंने अपना कोष, तन, मन और मानसिक श्रम अर्पित किया। फिर भी यह संसार उन्हें अनचाहा कर उपेक्षित बना दिया।
कवि ऐसी परिस्थिति में अपनी निजी पीड़ा की अनुभूति से प्रेरित होकर गीतों की रचना करता है। उन गीतों को मुखरित करने हेतु जनसाधारण से निवेदन करता है कि मेरे गीतों को गाओ जिससे उसमें अमरता छा जाय। कवि अपने गीतों की पृतिष्टि तब अनुभव करता है जब उसके गीत प्रत्येक के आठों पर स्पन्दित हो जा। प्रस्तुत गीत 'तुम गा दो' में कवि ने अपनी कामना व्यक्त की है। उसका कहना है कि मैंने तुम्हारे लिए सब कुछ लुटा दिया परंतु तुमने न अपना प्रेम दिया और न ममता। किसी व्यक्ति के लिए सर्वस्व होता है-तन, मन और धन। कवि कहता है कि अपनी तीनों सम्पति-तन, मन और धन मैंने तुम्हारे लिए समर्पित कर दिया। अब तो मेरी एकमात्र इच्छा रह गई है कि तुम मेरे गीतों को गाओ, जिससे मेरा गीत अमर हो जाये।
इस कविता में अपनी प्रेयसी को भी कहता है कि तुम्हारे ओठों पर मेरे गीत मुखरित हो, तत्पश्चात उसमें अमरता आ जाये। यह कविता वेदना की कविता है। कवि अपनी निजी वरना से....होकर गीतों की लाड़ियों प्रस्तुत करता है। इन गीतों के माध्यम से अपनी वेदना की अभिव्यक्ति करता है। करुणा और वेदना के भाव से ओत-प्रोत यह कविता छायावादी प्राकृति की पुष्टि करती है। कवि छायावादी नहीं होते हुये भी छायावादी संस्कार की गंध से उसकी रचना वंचित नहीं है।
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Poem